पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२३१

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काव्य २२३ का वर्णन दिया जायगा। इन्होंने प्रबन्ध-काव्य लिखने का प्रयास ही नहीं किया है और स्वरचित मुक्तक छन्दों के ही संग्रह अनेक नामों से संकलित किये हैं। गाने योग्य पदों की संख्या अधिक है, और छंदों में सवैया, कवित्त, दोहे श्रादि ही इन्हें विशेष प्रिय थे, इससे इनकी रचना में उन्हीं का आधिक्य है । इनकी कविता में रसों में शृंगार तथा भक्ति ही प्रधान हैं, और शृंगाररस भी प्रेममयी लीलासम्बन्धिनी ही विशेष कर होने से पाठकों के हृदय में किसी प्रकार से कुरुचि-उत्पादक नहीं है। हरिश्चंद्रकला के काव्य-खंड में अट्ठाइस पुस्तकें संगृहीत की गई हैं, जिन में से कई एक पृष्ठ तक की हैं । सात काव्य-संग्रह शुद्ध प्रेम पर बने है, जिनके नाम प्रेम-फुलवारी, प्रेम-प्रलाप, प्रेमाश्रु वर्षण, प्रेम- माधुरी, प्रेम मालिका, प्रेम-तरंग और प्रेम-सरोवर हैं ! नवो- दिताचंद्रिका में एक अन्य प्रेम-प्रलाप के २४ पृष्ठ छपे हैं, जिनमें ५१ पद हैं। इनमें कवित्त, सवैये तथा गाने योग्य पद हैं। प्रेम-फुलवारी में 'जगत पावन करन' प्रेम का वर्णन है। इस ग्रंथ को कवि ने भूमि, वृक्ष, मूल तथा फल चार भाग में बाँटा है। प्रथम में तेरह, दूसरे में छियालिस, तीसरे में आठ और चौथे में तेरह पद हैं । अंत में तेरह पद श्री स्वामिनी जी की स्तुति में हैं। इसके सभी पद सुन्दर हैं और इस प्रेम के फल-स्वरूप भक्त के हृदय में कैसा युगल ध्यान प्रस्फुटित होता है, उसे कवि यों कहता है- मन कर नित नित यह ध्यान । सुन्दर रूप गौर श्यामल छबि जो नहिं होत बखान।। मुकुट सीस चन्द्रिका बनी कनफूल सुकुण्डल कान । कटि काछिनि सारी पग नूपुर बिछिया अनवट पान॥ कर कंकन चूरी दोउ मुज पै बाजू सोभा देत । केसर खौर बिंदु से धुर को देखत मन हरि लेत ॥ .