पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२३२

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२२४ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र मुख. पै अलक पीठ पै बेनी नागिनि सी लहराति । चटकीली पट निपट मनोहर नील पीत फहराति ।। मधुर मधुर बंसी अधरन धुनि तैसी ही मुस्कानि ! दोउ नैननि रस भीनी चितवान परम दया की खानि ।। ऐसो अद्भुत भेष विलोकत चकित होत सब प्राय । "हरीचन्द' बिन जुगल' कृपा यह लख्यौ कौन पै जाय !! प्रेम-प्रलाप में सत्तर पद संगृहीत हैं, जिनमें संस्कृत की एक अष्टपदी है और दो पद गुजराती भाषा के हैं। इसके अधिकांश पद में प्रेमजनित उन्माद के भाव भरे हुए हैं ! "खुटाई पोरहि पोर भरी" "अनीतै कहौ कहाँ लौं सहिए” “जनन सों कबहूँ नाहिं चली" आदि पद भक्तों के प्रलाप ही हैं। प्रेमाश्रुवर्षण में छियालिस पद हैं और सभी वर्षाऋतु की क्रीड़ा के हैं। वर्षा हो रही है और उसी में हिंडोले पर झूलने, भौंजते हुए कुओं में छिपने, वर्षा के अनन्तर भ्रमण करते हुए दृश्यावली को देखते हुए अपस के कथोपकथन आदि का वर्णन है। एक पद में प्रेमाश्रु- वर्षण है। एक पद में प्रेमाश्रुवर्षण से नदी ही बहा कर स्वयं डूबती हुई की रक्षा करने की महाबाहु से प्रार्थना की गई है, देखिए--- हमारे नैन बही नदियाँ। बीती जान औधि सब पिय की जे हम सों बदियाँ ।। अवगाह्यौ इन सकल अंग ब्रज अंजन को धोयो लोक-वेद-कुल-कानि बहायों सुख न रह्यो खोयो । डूबत हो अकुलाइ अथाहन यहै रीति कैसी 'हरीचंद' पिय महाबाहु. तुम अाछत गति ऐसी ।। भारतेन्दु जी ने प्रेम की सारी माधुरी प्रेम-माधुरी के दो दोहों तथा एक सौ बाईस सवैयों में भर दी है। बाग्जाल तथा ,