पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२३३

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काव्य ] २२५ अलंकार आदि से लदी फदी कविता के अन्वेषकों को इनमें उनका मनोनीत आस्वादन चाहे न मिले, पर स्वच्छ स्वाभाविक निर्मल वाग्धारा के प्रेमियों को इनमें वह स्वाद तथा मधुरिमा मिलेगी जो सर्वदा उनके जिह्वान पर रहा करेगी। भारतेन्दु जी को अपनी काव्य-रचनाओं में यह सब से अधिक प्रिय थी और यह इस योग्य है । जैसी स्वच्छ भाषा है, वैसे ही उमड़ते हुए भाव भी व्यक्त किए गए हैं जिन्हें समझने में टोका कोष आदि किसी की सहायता वांछनीय नहीं है । सभी सवैये एक से एक बढ़ कर हैं । पहिली ही सवैया लीजिये- राखति नैनन मैं हिय मैं भरि दूर भएँ छि होत अचेत है। सौतिन की कहै कौन कथा तसवीर हू सों सतराति सहेत है ।। लाग भरी अनुराग भरी 'हरिचंद' सबै रस श्रापुहि लेत है । रूप-सुधा इकली ही पियै पिय हू को न आरसी देखन देत है ।। प्रीतम कठिन प्रेम के पाले पड़ गया है। प्रेमिका के अनन्य प्रेम का बहुत ही अच्छा वर्णन है। क्षण मात्र के वियोग की असह्यता भी दिखला दी गई है। पति पर ऐसा प्रेम है कि उसे आँखों तथा हृदय में रख छोड़ा है और केवल अकेले रूप-सुधा बैठ कर पीते हुए भी नहीं अघाती । प्रेमावेश के कारण वह अपनी चीज़ किसी को देखने नहीं देती, दूसरे की कौन कहे पति राम आप भी अपना मुख नहीं देख सकते । क्यों, कहीं अपने ही ऊपर न रीझ जायँ । सारा रूप-रस अपने ही चखना चाहती है। दूसरी वहाँ कब फटक सकती थी जब अन्य रमणी के चित्र को वहाँ देख कर वह कुपित होती थी। सत्य ही प्रेम अंधा है, वह अपनी स्वार्थान्धता के आगे दूसरे का कुछ भी विचार नहीं रखता। ।