पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२३५

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काव्य ] २२७ संग्रह में संकलित कर लिए हैं। इसमें सभी पद होली ही के हैं। खड्गविलास प्रेस की 'हरिश्चन्द्रकला' के 'मधुमुकुल' में केवल बयासी पद हैं। ज्ञात नहीं कि यह संग्रह किस प्रकार किया गया है। इस संग्रह के मुखपृष्ठ फर नीचे लिखे दो दोहे दिए गए हैं, जिनमें इस संग्रह के नामकरण का उद्देश्य दिया हुआ है। मधु रिपु मधुर चरित्र मधु पूरित मृदु मुद रास । हरिजन मधुकर सुखद यह नव मधुमुकुल प्रकास ॥ हृदय बगीचा अश्रु जल बन माली सुख बास । प्रेमलता में यह भयो नव मधुमुकुल विकास || सं० १९३६ में एक दर्जन लावनियों का संग्रह 'फूलों का गुच्छा' नाम से प्रकाशित हुआ। इसके सिवा 'प्रेमतरंग' में भी कुछ लावनियों के संगृहीत होने का उल्लेख हो चुका है। 'विनय- प्रेम पच्चासा' में यथानाम विनय के पचास पद संगृहीत हैं। छः दोहे, दो कवित्त तथा दो सवैये भी इसमें हैं। इसके तीसरे पद में कवि ने अपने ईश्वर का इस प्रकार आह्वान किया है- नैनन में निवसो पुतरी है हिय में बसो है प्रान । अंग अंग संचरहु सुक्ति है एहो मीत सुजान ।। नभ ह परौ मम आँगन में पवन होइ तन लागौ। ह सुगंध मो घरहि वसावहु रस है के मन पागौ ।। श्रवनन पूरौ होइ मधुर सुर अंजन है दोउ नैन । होइ कामना जागहु हिय में करहु नींद बनि सैन ।। रही शान मैं तुम ही प्यारे तुम मय तन्मय होय । 'हरीचंद' यह भाव रहै नहिं प्यारे हम तुम दोय ।। अठारह पद में 'देवीछद्म लीला' समाप्त हो गई है। श्री राधिका जी का मान कर देवी का रूप बनाना तथा सखियों