पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२३७

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काव्य] २२६ प्रसिद्ध हैं । भारतेन्दु जी ने उसी को देख कर इस सतसई के पचासी दोहों पर कुण्डलियाएँ बनाई, जो 'सतसई-सिंगार' के नाम सेप्रकाशित हुई। किसी किसी दोहे पर चार पाँच कुण्डलियाएँ तक बनी हैं, जिससे इनमें कुल एक सौ उन्नीस कुण्डलियाएँ संगृहीत हैं। इससे अधिक दोहों पर कुण्डलिया बनाने का अवकाश ही उन्हें न मिल सका। यह सन् १८७५ ई० की मई से सितम्बर महीने तक की पाँच महीनों को एक साथ निकलनेवाली 'हरिश्चंद्रचंद्रिका' की संख्या से छपने लगा था । 'बिहारी-बिहार' के कर्ता लिखते हैं कि 'कई वर्ष के श्रम में केवल कई सौ दोहों पर इन ने कुएडलिया बनाई परन्तु ग्रन्थ पूरा न हुआ।' आत्माभिमानी विद्वद्वर व्यास जी ने अहंता के कारण पूर्वोक्त वाक्य बिना समझे लिख मारा है क्योंकि पूरे सौ दोहों पर भी कुण्डलिया नहीं बनी हैं । आरंभ- -शूर भारतेन्दु जी के स्यात् दो चार दिन के श्रम का फल प्राप्त 'सतसई-सिंगार' है। किसी जैन मंदिर में जाने के कारण निंदा होने पर भारतेन्दु जी ने छत्तीस पद रचे थे, जिनका संग्रह 'जैन कुतूहल' ग्रन्थ है। इन्होंने दिखलाया है कि हमारे ही ईश्वर जैनों के भी स्रष्टा हैं और दूसरा कोई ईश्वर आया ही कहाँ से- पियारे दूजो को अरहंत । पूजा जोग मानि कै जग में जाको पूर्जे संत । अपनी अपनी रुचि सब गावत पावत कोउ नहिं अंतः। 'हरीचंद' परिनाम तुही है तासों नाम अनंत ।। बंशी की मधुर ध्वनि के वर्णन में तेरह पदों का एक छोटा संग्रह 'बेणुगीति' के नाम से प्रथित किया गया है, जिसके आरंभ में आठ और अंत में तीन दोहे हैं। गाने योग्य पदों का एक .