पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२३८

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२३० [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र बड़ा संग्रह 'रागसंग्रह' के नाम से प्रकाशित हुआ है, जिसमें एक सौ इक्कावन भजन हैं । इसमें अनेक राग-रागिनी के पद हैं, जो विशेषतः ग्रीष्म ऋतु के समय के हैं । जयंतिओं, जन्म तथा बाल- लीला वर्णन के और दैन्य संबंधी पद भी इसमें संगृहीत हैं। वल्लभाचार्य, श्री गिरिधर जी आदि के सुयश-कीर्तन के पद भी दिए गए हैं। यह संग्रह सन् १८८४ ई० के लगभग पहिली बार प्रकाशित हुआ था। 'प्रातःस्मरणस्तोत्र' में बारह पद हैं। इसके पाठ का फल कवि ने यों बतलाया है- द्वादश द्वादश अर्द्ध पद प्रात पढ़े जो कोय । हरि पद बल 'हरिचंद' नित मंगल ताको होय ॥ 'स्वरूप-चिंतन' में तेरह छप्पयों में श्री कृष्ण जी के प्रधान-प्रधान मंदिरों की मूतियों के नामकीर्तन किए गए हैं। इनमें सभी में बालस्वरूप ही का वर्णन है। प्रबोधिनी में पच्चीस छप्पय हैं। यह कार्तिक शुक्ला एकादशी के, जो देवोत्थान या प्रबोधिनी कही जाती है; उत्सव पर रचे गए हैं । उस दिन चातुर्मास के अनंतर विष्णु भगवान की निद्रा खुलती है । उस अवसर पर भगवान को जगाने के लिये मंगलवादन, पार्षद-भक्तादि की उपस्थिति, सखी. गोपी आदि का ब्रज में गायन-वादन, बालकों का सबेरे का श्रृंगार इत्यादि वर्णित हैं। देशप्रेम के कारण भारत के प्राचीन विख्यात राजाओं के न रहने पर तथा मुसल्मानों द्वारा देश की दुर्दशा पर रुदन करते हुये परमेश्वर से जागने के लिये इस प्रकार प्रार्थना की गई है- डूबत भारत नाथ बेगि जागो अब जागो। 'बालस-दवेएहि दहन हेतु चहुँ दिशि सों लागों ॥ महामूढ़ता वायु बढ़ावत तेहि अनुरागो। कृपादृष्टि की वृष्टि बुझावहु आलस त्यागो॥