पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२४३

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इतिहास] २३५ के बहुत दिनों बाद के लिखे गए कुछ काव्य अवश्य मिलते हैं, जिनमें ऐतिहासिक वृत्तों का समावेश हुआ है । शृंखलाबद्ध इति- हास का अन्वेषण निरर्थक है, केवल 'राजतरंगिणी' ही एक ऐसा अंथ उपलब्ध है, जिसमें काश्मीर का क्रमबद्ध इतिहास दिया गया है । हो सकता है कि इस प्रकार के कुछ और ग्रंथ भी पहिले रहे हों और समय, धार्मिक द्वन्द्व तथा राज्यों के उलट-फेर में वे नष्ट हो गए हों । हिन्दी साहित्य में भी आज से पचास-साठ वर्षे पहिले के निर्मित कितने इतिहास-ग्रंथ हैं, जो वास्तव में इतिहास कहे जा सकते हैं। हिन्दी के प्रारम्भ के वीरगाथा-काल में अवश्य कुछ रासो लिखे गए हैं, जिनमें किसी-किसी वीर राजा की चढ़ाइयों, युद्धों आदि का उत्तम वर्णन है । वे कविताबद्ध जीव- नियाँ कही जा सकती हैं। किसी किसी के प्रारम्भ में वंशावली भी दी गई है। मराठा उत्थान-काल में भी कई काव्य ऐसे बने हैं जिनमें शिवाजी, छत्रसाल, राजसिंह आदि से वीरों का वर्णन है। राजस्थान की ओर ख्यातों के लिखने की प्रथा पुरानी है और उनमें उस प्रांत के इतिहास की सामग्री भी बहुत है, पर वे एक-एक राजवश का वर्णन करती हैं, और समग्र भारत क्या पूरे प्रांत तक के इतिहास से सम्बन्ध नहीं रखतीं। ये राजस्थानी भाषाओं में हैं। हिन्दी गद्य साहित्य का आरम्भ भी उन्नीसवीं ईसवी शताब्दि के साथ-साथ होता है और उस काल में भी कुछ पाठ्य-ग्रंथों के बनने के सिवा विशेष कुछ न हुआ । प्रायः उसके साठ वर्ष बाद भारतेन्दु जी ने जब हिन्दी साहित्य के सभी अंगों की पुष्टि की ओर अपनी लेखनी चलाई और मातृ-भाषा- प्रेम का अविरल स्रोत बहाया तभी से हिन्दी की उत्तरोत्तर श्री वृद्धि होती चली जा रही है। उनके समय तक केवल इतिहास की दो चार छोटी-मोटी पुस्तकें लिखी गई थीं, जो अंग्रेजी की अनु