पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२४४

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२३६ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र वाद मात्र थीं। भारतेन्दु जी ने इस अंग की कमी की ओर दृष्टि फेरी और कई पुस्तकें लिख डालीं। प्राचीन समय के ऐतिहासिक अन्वेषण का भी हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु जी ही ने आरम्भ किया है, और पुरावृत्तसंग्रह, रामायण का समय आदि कई पुस्तकें लिखी हैं। इन्होंने स्वयं अन्वेषक ( ऐंटिक्वेरियन ) शब्द की परिभाषा यों की है कि 'जो मूर्तियाँ मिलें वह जैनों की हैं, हिन्दू लोग तातार से वा और कहीं पश्चिम से आए होंगे, आगे यहाँ मूर्तिपूजा नहीं होती थी इत्यादि कई बातें बहुत मामूली हैं, जिनके कहने ही से आदमी ऍटिक्वेरियन हो सकता है। इस प्रकार के अन्वेषकों से भारतीय प्राचीन इतिहास का उद्धार होना असंगत ही था। हिन्दी में उस समय तक इस विषय पर कुछ लिखा ही नहीं गया था, इसलिये भारतेंदु जी ने इस ओर पहिले पहिल दृष्टि देकर कुछ लिखना आरम्भ कर दिया। पुरातन वृत्त के अनुसंधान में इन्होंने बहुत कुछ व्यय कर प्राचीन प्रशस्तियों, लेखों आदि की प्रतिलिपियाँ एकत्र की थीं, और बहुत से पुराने समय के सिक्के भी संग्रह किए थे । इनके ग्रंथों के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि इन्हें इतिहास से बहुत प्रेम था, और उस विषय का इनका ज्ञान भी बहुत बढ़ा-चढ़ा हुआ था। 'हरिश्चन्द्रकला' के द्वितीय खंड इतिहास समुच्चय में तेरह पुस्तकें संगृहीत हैं। इन सब से भी पुरावृत्त की ओर ही इनकी रुचि-विशेष रूप से पाई जाती है। पहला ग्रंथ 'काश्मीर-कुसुम' है। इसकी भूमिका में भार- तेन्दु जी लिखते हैं कि "काश्मीर के इतिहास में कल्हण कवि की 'राजतरंगिणी' मुख्य है ।.........कल्हण ने जयसिंह के काल में सन् ११४१ ई० में 'राजतरंगिणी' बनाई । यह काश्मीर