पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२५१

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समाचार पत्र] २४३ होती है, जिसका शीर्ष दोहा इस प्रकार है- नित नित नव यह कविवचन-सुधा सकल रस खानि । पीवहु रसिक अनन्द भरि परम लाभ जिय जानि ।। सुधा सदा सुरपुर बसै, सो नहि तुम्हरे जोग । तासों आदर देहु अरु पीवहु एहि बुध लोग ।। उस वर्ष को संख्याओं में देवकृत अष्टयाम, दोनदयाल गिरि का अनुराग बागं, जायसी का पद्मावत, बिहारो के दोहे आदि प्रका- शित हुए थे। इसमें गुलिस्ताँ का अनुवाद भा संपादक कृत छपा था, जो अपूर्ण रह गया। यह पाक्षिक था और इस वर्ष की चौबीस संख्याएँ प्रकाशित हुई थीं। इन सब में पद्य का एक प्रकार अभाव है और कुल लेख गद्य के हैं। केवल कभी कभी समस्याएँ तथा भारतेन्दु जी की कविता छपती थी। इनमें राज- नीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा साधारण मनोरंजन के लेख हैं इनमें समाचार भी सकलित किये जाते थे। इसके अनंतर यह पत्र बड़े आकार में साप्ताहिक कर दिया गया, और इस पर निम्न लिखित सिद्धान्त वाक्य छपने लगा। खल जनन सों सज्जन दुखी मति होहिं हरिपद मति रहै । उपधर्म छूटै स्वत्व निज भारत लहै कर दुख बहै । बुध तजहि मत्सर नारि नर सम होंहि जगानन्द ल है । तजि ग्राम कविता सुकवि जन की अमृत बानी सब कहै। इससे धर्म, समाज तथा राजनीति सभी में इनका उस समय क्या मत था, यह स्पष्ट झलकता है । 'उपधर्म छूटै' कहना पुराने अंध विश्वासियों को, 'हरि पद मति रहै' अश्रद्धालुओं को तथा 'नारि-नर सम होंहिं' समाज की पुरानी लकीर के फकीरों को जितना कर्ण कटु था उतना ही 'स्वत्व निज भारत गहै कर दुख बहै। सरकारी अफसरों के लिये कटु था। इसी सिद्धान्त के