पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४६ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र विद्वत्कुलामलस्वांत कुमुदामोददायिका । आर्यज्ञान-तमोहंत्री श्रीहरिश्चन्द्रचन्द्रिका । कविजन-कुमुद-गन हिय विकासि चकोर-रसिकन सुख भरै प्रेमिन सुधा सों सींचि भारत भूमि अालस तम हरै। उद्यम सुऔषधि पोखि बिरहिन तापि खल चोरन दरै। हरिचन्द्र की यह चन्द्रिका परकासि जग मंगल करै। ये दोनों पत्रिकाएँ एक ही हैं, केवल पहिले नाम का अँगरेजी- पन दूर कर उसे हिन्दी रूप दिया गया है। चन्द्रिका के खंड तथा संख्याओं का आरम्भ मैगजीन के आरम्भ से ही किया गया है l उसका दूसरा खंड अक्टूबर सन् १८७४ ई० से आरम्भ होता है और पहिले खंड में आठ संख्या मैगजीन और चार चन्द्रिका की हैं। चार-छः प्रारम्भिक संख्याओं के मुख पृष्ठों के माजिन पर अगरेजी में हरिश्चन्द्र मैगजीन छपा भी रहता था तथा इनमें अँगरेजी लेख भी छपते थे, को बन्द हो गए । चौथे खंड की भी संख्याओं के कवर के चौथे पृष्ठ पर अँग- रेजी रूपान्तर दिया जाता था और वहाँ पत्रिका का नाम हरिश्चन्द्र मैगजीन ही रहता था। इस पत्रिका में गद्य-पद्यमय काव्य, पुरावृत्त, नाटक, कला, इतिहास, परिहास, समालोचना आदि विषय पर बराबर लेख निकलते थे। इनके लिये भारतेन्दु जी को कई सुलेखक तथा सुकवि मिल गए थे, पर यदि संपूर्ण फाइल कोई देखे तो उनमें इन्हीं की कृतियाँ तथा लेख विशेषत: मिलेंगे। इस पत्रिका के सन् १८७४ ई० की नवम्बर की संख्या के अंत में इकतीस सहा- यक सम्पादकों के नाम दिए गए हैं, पर यह सहायक सम्पादक शब्द उस समय लेख देने वालों के लिये ही प्रयुक्त हुआ था । जो बाद