पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२५५

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हरिश्चन्द्र मैगजीन तथा चन्द्रिका ] २४७ इनमें ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानन्द, शेरिंग आदि नाम ऐसे हैं जिन्होंने स्यात् कभी एकाध टिप्पणी लिख दी होगी। यह चन्द्रिका इस प्रकार आठ वर्ष तक हिन्दी-प्रेमियों का मनोरंजन करतो रही, पर सन् १८८० ई० में पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के विशेष आग्रह करने पर भारतेन्दु जी ने इसे उन्हें सौंप दिया, जिसके अनंतर वह 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका और मोहन चन्द्रिका' के नाम से चैत्र शु० १ सं० १९३७ से काशी ही. में प्रकाशित होती रही। इसके मुखपृष्ठ पर भी वही शीर्षक श्लोक और छंद छपता रहा । दूसरे ही वर्ष वह मेवाड़ श्रीनाथ- द्वारे चली गई, जहाँ की मरुभूमि में वह सदा के लिये लुप्त हो गई। सन् १८८४ ई० में भारतेन्दु जी ने इसे 'नवोदिता हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' के नाम से पुनः प्रकाशित करना आरम्भ किया, पर दो अंक निकालने के बाद वे स्वयं ही संसार से उठ गए । इस पर भी चन्द्रिका का वही पुराना शीर्ष का श्लोक तथा पद्य छपता था । उनके छोटे भाई केवल एक ही अंक बाद को प्रकाशित कर सके। यह नवोदिता छोटे साइज में निकली और प्रत्येक संख्या में बावन-बावन पृष्ठ थे। इनमें पुरावृत्त संग्रह, स्वर्णलता उपन्यास तथा सती-प्रताप नाटक और कृष्ण भोग क्रमशः निकलते रहे। प्रेम प्रलाप भी चौबीस पृष्ठ छपकर रह गया, जिसके कई पद बहुत ही अच्छे हैं । बलिया का व्याख्यान भी तीसरी संख्या में पूरा छपा है । समय के अनुकूल कुछ मुकरियाँ भी इसमें प्रका- शित की गई हैं। भारतेन्दु जी ने इसी मैगजीन के जन्म के साथ साथ हिन्दी का सन् १८७३ ई० में नए चाल में ढलना स्वयं स्वीकार किया है। यहाँ कविवचनसुधा तथा मैगजीन दोनों ही से कुछ अंश पाठकों के विनोदाथे उद्घ त कर दिए जाते हैं । कविवचनसुधा ( जि० २ नं०२)-२१वीं