पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। "आलोचना] २४६ निम्नलिखित दोहे छपते थे जो हरि सोई राधिका जो शिव सोंई शक्ति । जो नारी सोई पुरुष यामें कछ न विभक्ति ।। सीता अनुसूया सती अरुन्धती अनुहारि । शील लाज विद्यादि गुण लहौ सकल जग नारि ।। पितु पति सुत करतल कमल लालित ललना लोग। पर्दै गुनैं सीखें सुनै नासैं सब जग सोग ।। वीर प्रसविनी बुध बधू होइ' हीनता खोय । नारी नर अरधंग की साँचेहि स्वामिनि होय ।। इसमें स्त्रियोपयोगी लेख ही अधिक छपते थे पर मुद्राराक्षस नाटक, नीतिविषयक इतिहास आदि भी क्रमशः प्रकाशित होते रहते थे। यह पत्रिका चार वर्ष तक प्रकाशित होकर बन्द हो गई। गवर्नमेंट ने इसकी प्रतियाँ लेना बंद कर दिया था और यही इस पत्रिका के भी बंद होने का मुख्य कारण है, जैसा कि भारतेन्दु जी के एक पत्र से ज्ञात होता है। आलोचना मानव मस्तिष्क का उपज ही साहित्य है जो संसार की भाषाओं में लेखबद्ध होकर संचित होता रहता है और उन भाषाओं का साहित्य कहलाता है। जीवित भाषाओं के साहित्य सर्वदा उन्नति मार्ग पर अग्रसर रहते हैं और उनके साहित्य- प्रकार बातचीत करने लगा तो उसको वर्णमाला याद कराती रहो फिर उन्हीं को पट्टी पै लिखके अभ्यास करात्रो और रातों को गिनती और सुन्दर सुन्दर श्लोक वा छोटे स्तोत्र याद कराअो। इस ब्योहार में कई एक बातें सुन्दर प्राप्त होंगी । प्रथम तो बालक को खेल ही खेल में अक्षर शन हो जावेगा दूसरे उसका काल भी व्यर्थ नहीं जाने का। फिर इस अवसर का पढ़ा लिखा विशेष कर के याद रहता है।'