पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२६०

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आलोचना] २५३: अँगरेज सरकार की ओर से जो यह प्रयत्न हुआ था वह बहुत शीघ्र ढीला हो गया और उसके फलस्वरूप दो-चार ही उल्लेखनीय ग्रन्थ हिन्दीमंदिर को प्राप्त हुए । इसके अनंतर प्रायः साठ वर्ष से अधिक काल तक मातृभाषा का कोई अच्छा सेवक पैदा नहीं हुआ। शिक्षा-सम्बन्धिनी थोड़ी-बहुत पुस्तकें इस बीच लिखी गई हैं, जिनका अधिकांश मिशनरियों के श्रम का फल था। विक्रमीय बीर शताब्दि के आरम्भ के साथ राजा शिव- प्रसाद तथा राजा लक्ष्मण सिंह की रचनाओं का प्रारम्भ होता है। प्रथम राजा साहब की प्राथमिक रचनाएँ सरल हिन्दी ही में थीं, पर यह भाषा बाद को उर्दू-मिश्रित हो गई, यहाँ तक कि आप ने 'आमफहम' शब्द भी आमफहम ( सबके समझने योग्य ) समझ लिया। दूसरे राजा साहब ने सरल सुगम हिन्दी ही को आदर्श रखकर अपनी रचनाएँ लिखीं और इस प्रकार उन्होंने उस हिन्दी का आभास दिया जो भार- तेन्दु-काल में पूर्ण विकसित हुई थी। उस समय ऐसे ही प्रतिभा- शाली तथा शक्तिसंपन्न लेखक की आवश्यकता थी, जो हिन्दी साहित्य के गद्य तथा पद्य दोनों ही विभागों को सुव्यवस्थित तथा परिमार्जित करते हुये, उसे समय के साथ अग्रगामी होती हुई जनता की रुचि के अनुकूल बनाता । भाषा ही का रूप उस समय तक निश्चित नहीं हो सका था, और प्रत्येक साहित्यसेवी अपनी खिचड़ी अलग पका रहा था । स्वयं भारतेन्दु जी ही हरिश्चन्द्र मैगजीन के जन्म के साथ हिन्दी का नए साँचे में ढालना मानते थे। साहित्य तथा भाषा की ऐसी ही परिस्थिति में भारतेन्दु जी का उदय हुआ और उनका भाषा तथा साहित्य पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता माने गए । 'भाषा का निखरा हुआ शिष्टसामान्य रूप भारतेन्दु की