पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२६१

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२५४ . [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कला के साथ ही प्रकट हुआ ।' गद्य और पद्य दोनों ही की भाषा का इन्होंने बहुत कुछ संस्कार किया था । परंपरागत काव्यभाषा में जो पुराने समय के अप्रचलित हुए शब्द चले आ रहे थे उन्हें निकाल कर और चलते शब्दों का प्रयोग कर इन्होंने उसे सुव्यवस्थित तथा समयानुकूल बनाया । इनके समय तक हिन्दी काव्य जगत में वही भक्ति तथा शृङ्गार आदि की पुरानी चाल की कविता होती. आ रही थी और भारतीयों में नए यूरोपीय ढंग की शिक्षा आदि से जो देश- प्रेम, लोकहित आदि अनेक नए नए भाव, उमंग आदि पैदा हो रहे थे, उन रुचियों के अनुकूल कविता का एक प्रकार अभाव था। पढ़ने वालों की विचारधारा नए मार्ग पर जा रही थी और काव्यधारा उसी पुरानी लीक पर बह रही थी । भारतेन्दु जी ने दोनों मार्ग का साहचर्य कराकर काव्यकला में नई जान डाली। गद्य का भी प्रायः यही हाल था, ऐसा कहना चाहिये पर वास्तव में इनके समय के कुछ पहिले तक का हिन्दी गद्य-साहि- त्य गद्य-साहित्य कहलाने के योग्य नहीं है । आज से डेढ़ शता- ब्दि पहिले की प्राप्त पुस्तकें केवल उस समय की भाषा के नमूने समझ कर ही आज पढ़ी जाती हैं। लल्लूलाल जी के समय की पुस्तकों में एक तो महज़ किस्सा है और अन्य , पौराणिक कथाएँ हैं। इसके अनंतर कुछ शिक्षा-सम्बन्धिनी पुस्तकें. अवश्य निकली पर वे समय के साथ अग्रसर होती हुई जन-साधारण की मान- सिक तृष्णा को किसी प्रकार तृप्त नहीं कर सकती थीं। राज- नीतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, नाट्यकला आदि अनेक विषय- सम्बन्धिनी पुस्तकों का एक दम अभाव था । यूरोपीय संघर्ष के “कारण बंगदेश में नए विचारों के अनुकूल नाटक, उपन्यासादि की रचना होने लगी थी और जनसाधारण में उन्हीं की नई