पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२६३

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२५६ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र किया कि नए नए या बाहरी भावों को पचा कर इस ढंग से मिलाना चाहिये कि वे अपने ही साहित्य के विकसित अंग से लगें।' सत्य ही भारतीय इतिहास के अर्वाचीन तथा वर्तमान के जिस संधिकाल में भारतेन्दु जी का उदय हुआ था उसी के ठीक अनुरूप प्राचीन-नवीन की गंगा-जमुनी से अलंकृत साहि- त्य का निर्माण कर निस्संदेह उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास में अमर पद प्राप्त कर लिया है। भारतेन्दु जी मातृभाषा तथा मातृभूमि दोनों ही के सच्चे सपूत थे और उनकी यावत् कृति इन्हीं दोनों के उत्थान को दृष्टिकोण में रखते हुये हुई थी । मातृभाषा की सुव्यवस्था, उसके साहित्य के सभी अंगों की उन्नति तथा उसके प्रचार का जितना इन्होंने प्रयत्न किया था उतना ही देशप्रेम और जातीयता की भावना,. समाज-सुधार, ईश्वर प्रति भक्ति और शिक्षा के प्रसार के लिये वे यत्न-शील रहे । इनकी रचनाओं ने देश के राजनीतिक, सामा- जिक तथा धार्मिक विचारों में नए नए भाव पैदा किये और मातृभाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयत्न में यही सबके अग्र- गण्य भी हुये थे। भाषा तथा भाषा शैली गद्य साहित्य के आरम्भ के साथ जो पहिला प्रश्न उठा था वह भाषा का था । फारसी की कठिनता देखकर वह सरकारी दफ्तरों से उठा दी गई, और उसके स्थान पर उसी लिपि वाली उर्दू नियत की गई। पहिले यह भाषा कुछ सरल कर लिखी जाती थी पर क्रमशः वह काठिन्य बढ़ाते हुये पुनः हिन्दी की क्रिया आदि युक्त एक प्रकार की फारसी हो गई। इस उर्दू का जन्म बहुत दिनों तक रंगीले मुहमद शाह के समय हुआ माना जाता था, पर अब यह दक्षिण में स... अकबर के समय में .