पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२६७

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२६० [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की अक्लमंदी की गवाही देता हो।' इधर राजा लक्ष्मण सिंह अथ से इति तक इसी प्रकार लिखते रहे, जैसे, 'तुम्हारे मधुर बचनों के विश्वास में आकर मेरा जी यह पूछने को चाहता है कि तुम किस राजवंश के भूषण हो और किस देश की प्रजा को विरह में व्याकुल छोड़ यहाँ पधारे हो ?' इनकी भाषा में ब्रजभाषा का पुट कम न था पर तब भी यह भाषा हिन्दी गद्य के भावी रूप का आभास दे रही थी। इन दोनों सज्जनों ने भाषा के जो दो रूप उपस्थित किए थे वे एक प्रकार, कहा जा सकता है कि, प्रस्ताव के रूप में थे और अब ऐसे प्रतिभावान तथा जबदस्त लेखकों की आवश्यकता थी, जो इनमें से किसी एक को सुव्यवस्थित तथा परिष्कृत कर उसमें ऐसा साहित्य तैयार करते जो सुशिक्षित जनसाधारण की सामयिक रुचि के अनुकूल होता । ठीक इस परिस्थिति में भारतेन्दु जी का उदय हुआ। भारतेन्दु जी की धार्मिक उदारता का उल्लेख हो चुका है और वे हिन्दू-मुसल्मान विरोध के परिपोषक भी नहीं थे पर स्वदेश- भक्ति तथा स्वमातृभाषा-प्रेम से उनका हृदय इतना भरा हुआ था कि वे एक ऐसी खिचड़ी भाषा का, जिसमें अभारतीय शब्दों की अकारण भरमार हो, समर्थन न कर सके और उन्होंने शुद्ध पर सरस भाषा ही को अपनाया। वे उसे केवल अपना कर ही नहीं रह गए वरन् अपनी प्रतिभा, लेखन-शक्ति तथा अथक उद्योग से इस शुद्ध भाषा में अनेक विषयों पर बहुत से ग्रंथ लिख डाले। इनके अनुयायी-मंडल ने भी इसी भाषा का अपनी रचनाओं में उपयोग किया और वही हिंदी गद्य साहित्य की सर्वमान्य भाषा हो गई । इस प्रकार भारतेन्तु जी ने भाषा को परिमार्जित करके. उसे बहुत ही चलता, मधुर और स्वच्छ रूप दिया है । 'उनके. भाषा-संस्कार की महत्ता को सब लोगों ने मुक्तकंठ से स्वीकार