पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२६८

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भाषा तथा भाषा शैली] २६१ किया और वे वर्तमान हिंदी गद्य के प्रवर्तक माने गए।' 'वर्त- मान हिंदी की इनके कारण इतनी उन्नति हुई कि इसका जन्मदाता कहने में भी अत्युक्ति न होगी।' भारतेन्दु जी के गद्य की भाषा में दो या उससे अधिक शैलियाँ मिलती हैं। इन्होंने इतिहास, जीवनी, नाटक, उपन्यास, निबंध आदि अनेक विषयों पर रचनाएँ की हैं। कहीं गंभीर गवेषणा, तथ्यातथ्य-निरूपण आदि हैं तो कहीं परिहास, व्यंग्य और मनो- रंजन हो रहा है। कहीं भावावेश में कुछ बातें कह डाली गई हैं, तो कहीं एक-एक शब्द तौल कर गांभीर्य से लदे हुए निकल रहे हैं । अर्थात् विषय तथा भाव के अनुसार ही भाषा की शैली में परिवर्तन स्वभावत: होता गया है। हाँ इसके लिये भारतेन्दु जी ने विशेष प्रयास नहीं किया और न ऐसा करने बैठने को उनके पास समय था। उन्हें तो अपना छोटा-सा जीवन हिन्दी की यथाशक्ति सेवा करने में, उसके साहित्य के प्रायः सभी विभागों में कुछ न कुछ लिखकर उनका आरम्भ कर देने में लगा देना था। 'उदय पुरोदय' एक इतिहास ग्रंथ है, और उसमें प्राचीन इति- हास का गवेषणापूर्ण अनुसंधान किया गया है । इसकी भाषा का एक नमूना लीजिए-'पहिले कह आए हैं कि वाप्पा ब्राह्मणगण का गोचारण करते थे। उनकी पालित एक गऊ के स्तन में ब्राह्मण- गण ने उपर्युपरि कियदिवस तक दुग्ध नहीं पाया, इससे संदेह किया कि वाप्पा इस गऊ को दोहन करके दुग्ध पान कर लेते हैं । वाप्पा इस अपवाद से अति क्रुद्ध हुए किन्तु गऊ के स्तन में स्व- रूपतः दुग्ध न देखकर ब्राह्मणगण के संदेह को अमूलक न कह सके । पश्चात् स्वयं अनुसन्धान करके देखा कि यह गऊ प्रत्यह एक पर्वत-गुहा में जाया करती थी और वहाँ से प्रत्यागमन करने से उसके स्तन पयःशून्य हो जाते हैं । बाप्पा ने गऊ का अनुसरण