पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६२ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र करके एक दिन गुहा में प्रवेश किया और देखा कि उस बेतस वन में एक योगी ध्यानावस्था में उपविष्ट है।' बादशाह दर्पण का एक अंश इस प्रकार है-'इसका प्रकृत नाम फखरुहीन अलग खाँ था। पहिले यह बुद्धिमान और बड़ा दानी था । हज़ार दर का महल बनवाया । मुगलों से सुलह किया और दक्षिण में अपना अधिकार फैलाया। पर पीछे से ऐसे काम किए कि लोग उसे पागल समझने लगे । हुकुम दिया कि दिल्ली की प्रजा मात्र दिल्ली छोड़ कर देवगढ़ में रहे, जिसको दक्षिण में दौलताबाद नाम से बसाया था। इसका फल यह हुआ कि देवगढ़ तो न बसा किन्तु दिल्ली उजड़ गई। अन्त में फिर दिल्ली लौट आया । फारस और खुरासान जीतने के लिये तीन लाख सत्तरह हज़ार सवार इकट्ठे किए, इनमें से एक लाख को चीन लेने के लिए भेजा, ये सब के सब हिमालय में नष्ट हो गए, कोई न बचा ।' पूर्वोक्त दोनों उद्धरणों के देखने से यह ज्ञात हो जाता है कि दोनों शैलियों में बहुत कुछ भेद है। प्रथम में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रचुरता के साथ वाक्यावली भी विशद है पर दूसरे में यह दोनों बातें नहीं हैं, प्रत्युत् बहुत से फारसी के सरल शब्द प्रयुक्त किए गए हैं, और छोटे-छोटे वाक्य ही विशेषतः रखे गए हैं । इसका कारण प्रत्यक्ष ही यह है कि पहिले में प्राचीन काल का पुरातत्व-विषयक इतिहास गवेषणा तथा मननपूर्वक लिखा जा रहा है और दूसरे में मुसल्मानी काल के इतिहास की साधा- रण बातें दी गई हैं, तथा इसी से इस भाषा में उर्दू के प्रचलित सुगम शब्द आप से आप आ गए हैं। यही इनकी वास्तविक भाषा शैली है, जो मध्य मार्ग पर अवलंबित है। स्वनिर्मित नाटक में प्रतिकृति के तथ्यातथ्य-निरूपण में इस प्रकार लिखते हैं-