पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भाषा तथा भाषा शैली] 'किसी चित्रपट द्वारा नदी, पर्वत, वन वा उपवन आदि की प्रतिच्छाया दिखलाने को प्रतिकृति कहते हैं। इसी का नामांतर अंतः पटी वा चित्रपट वा दृश्य वा स्थान है । यद्यपि महामुनि भरत-प्रणीत नाट्यशास्त्र में चित्रपट द्वारा प्रासाद, वन, उपवन किंवा शैल प्रभृति की प्रतिच्छाया दिखाने का कोई नियम स्पष्ट नहीं लिखा है, किंतु अनुधावन करने से बोध होता है कि तत्काल में भी अंत: पटी-परिवर्तन द्वारा वन, उपवन या पर्वतादि की प्रतिच्छाया अवश्य दिखलाई जाती थी। ऐसा न होता तो पौर- जानपद वर्ग के अपवाद-भय से श्री रामकृत सीता-परिहार के समय में उसी रंगस्थल में एक ही बार अयोध्या का राज-प्रासाद और फिर उसी समय वाल्मीकि का तपोवन कैसे दिखलाई पड़ता। इससे निश्चय होता है कि प्रतिकृति के परिवर्तन द्वारा पूर्व काल . में यह सब अवश्य दिखलाया जाता था ।' 'लेवी प्राण लेवी' लेख का एक अंश इस प्रकार है। इसमें व्यंग्यात्मक शैली ही मुख्य है । 'कोई खड़ा हो जाता था, कोई बैठा ही रह जाता था, कोई घबड़ा कर डेरे के बाहर घूमने चला जाता था कि इतने में कोलाहल हुआ "लाट साहब आते हैं"। राय नारायन दास साहिब ने फिर अपने मुख को खोला और पुकारे "स्टैंड अप" ( खड़े हो जाव)। सब के सब एक संग खड़े हो गए। राय साहिब का "सिट डौन” कहना तो सब को अच्छा लगा पर "स्टैंड अप" कहना सबको बुरा लगा मानो भले बुरे का फल देने वाले रायसाहिब ही थे। इतने में फिर कुछ पाने में देर हुई और फिर सब लोग बैठ गए। वाह वाह दरबार क्या था "कठपुतली का तमाशा" था या बल्लमटेरों की “कवायद" थी या बन्दरों का नाच था या किसी पाप का फल भुगतना था या "फौजदारी की सजा" थी।'