पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७२

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भाषा तथा भाषा शैली] २६५ भारतेन्दु जी ने अपनी भाषा में फारसी अरबी के शब्दों को भी रख दिया है पर उनके वे ही रूप लिखे गए हैं जो बिल्कुल 'चलते हुए हैं। उनके तत्सम रूप रखने का प्रयास नहीं किया गया है । जनाने, नाराज, हफ्ता, मसाला, खुरमा, चासनी, खबगी, जादे, बरखास्त आदि के शुद्ध तत्सम रूप जनानः, नाराज, हफ्तः, मसालः, खुर्मा, चाशनी, खफ़गी, ज्यादः, बरख्वास्त आदि नहीं रखे गए हैं । इसी प्रकार अंग्रेजी के कितने चलते शब्द भी इनके द्वारा प्रयुक्त हुए हैं और उनका तत्सम रूप नहीं लिया गया है। टिकट, अंधरी मजिस्टर, कमेटी, किरिस्तानी, पतलून आदि शब्द शुद्ध अंगरेजी शब्दों के बिगड़े रूप हैं पर बोलचाल में इसी प्रकार प्रयुक्त होते आए हैं और इसलिये इसी रूप में रखे गए हैं । संस्कृत के भी तद्भव शब्दों का जो बोल चाल में काम आते हैं खूब प्रयोग किया गया है, उनके शुद्ध ही रूप देने का प्रयास नहीं किया गया है । जजमान, सूरत, नहान, आपुस, गुनी, अच्छे आदि ऐसे बहुत शब्द मिलते हैं जो बोलचाल में इसी रूप में बराबर व्यवहृत होते हैं, और जो कानों को बड़े प्रिय भी लगते हैं । इनका प्रयोग उपयुक्त स्थान पर होने से नहीं खलता तथा रचना आधिक्य के कारण वे खटकते भी नहीं। भई, आवता, ई ( यह ), कहाते हैं, करथी, लिहिन हैं, होय गई, जाथौ आदि से शब्द भी काम में लाए गए हैं पर प्रायः वे ऐसे पात्रों द्वारा प्रयुक्त कराए गए हैं जो उसी प्रकार की बोली बोलते थे। काशी में अवधीपन युक्त भाषा आज भी बोली जाती है और यहाँ के रहने वाले पात्रों द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग उचित ही हुआ है। मुहाविरे के प्रयोग से भाषा में सबलता आती है और बहुतेरे भाव इनके प्रयोग से ऐसा खिल उठते हैं जैसा वे कई वाक्यों के