पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७४

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नाट्य शास्त्र ज्ञान २६७. करण किया है और न यूरोपीय पद्धति का। दोनों की कुछ कुछ बातों का यथारुचि, पारसी नाटक कंपनियों और आधुनिक बंगला नाटकों के अनुकरण पर, उपयोग किया गया है। यह उपयोग यदि किसी सिद्धान्त पर होता अथवा किसी नई पद्धति को प्रचलित करने के उद्देश्य से किया जाता तो अवश्य कुछ महत्व का हो सकता था। जो कुछ आक्षेप या दुःख की बात है, वह यही है कि संस्कृत के कई नाटकों के अनुवादक होने पर भी भार- तेन्दु जी ने अपने परम उन्नत नाट्यशास्त्र के ज्ञान का कोई उप- योग नहीं किया। पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध उत्पन्न करने वाली प्रकाशमाला से मोहित होकर उन्होंने उसके आगे सिर झुका दिया। भारतेन्दु जी के समय में जो और नाटक लिखे गए, वे भी इसी ढंग के थे। उनके रचयिताओं ने भारतेन्दु जी को अपना आदर्श माना और उनका अनुकरण करने का प्रयत्न किया। भारतेन्दु जी ने हिन्दी में अनेक नाटक लिखकर हिन्दी साहित्य के एक प्रधान अंग की पूर्ति का उद्योग किया और लोगों को इसका मार्ग दिखाया ।' दूसरे विद्वान साहित्य-मर्मज्ञ पं० रामचन्द्र शुक्ल जी लिखते हैं कि 'इनमें पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक आदि हर प्रकार के नाटक हैं। इन नाटकों की रचना में उन्होंने मध्यम मार्ग का अवलंबन किया । न तो बँगला के नाटकों की तरह प्राचीन भारतीय शैली को एकबारगी छोड़ वे अँगरेजी नाटकों की नकल पर चले और न प्राचीन नाट्यशास्त्र की जटि- लता में अपने को फँसाया ।' पूर्वोक्त जो दो सम्मतियाँ उद्धृत की गई हैं उनसे स्पष्ट है कि उनके लेखकों ने संस्कृत, बँगला तथा अँगरेजी तीनों नाट्यसाहित्यों का मनन किया है और एक. सज्जन ने इसके सिवा पारसी थिएट्रिकल साहित्य का भी मंथन किया है। f