पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७६

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नाट्यशास्त्र ज्ञान] २६६. नाटककार के कौशल ने उन्हें दे दिया है। यह वस्तु दो प्रकार का होता है-आधिकारिक और प्रासंगिक । नाटक के प्रधान फल का जो मालिक होता है उसे अधिकारी कहते हैं और उसकी ही कथा आधिकारिक है। इसकी साधिका इतिवृत्ति प्रासंगिक कहलाती है। यही अधिकारी नायक कहलाता है। जिस प्रकार सत्य हरिश्चन्द्र में हरिश्चन्द्र अधिकारी या नायक हैं और उनको कथा आधिकारिक है। इस कथावस्तु के व्यापारों को करने या सहने वाले मनुष्य होते हैं जिनके कार्यों को देखकर तथा वार्तालाप सुनकर कुल बातें दर्शकों पर प्रकट होती हैं । इसी लिए नाटककार इन व्यापारों को अभिनय तथा पात्रों के कथोप-. कथन द्वारा बड़ी कुशलता से संगठित करता है, जिससे कुल घटना-क्रम पाठकों, विशेषतः दर्शकों, को हृदययंगम हो जाती है । यह कथोपकथन पात्रों के चरित्र के अनुकूल ही होना चाहिए। मितभाषी पात्र का बकवाद, गंभीर राजनीतिज्ञ का मसखरापन आदि दिखलाना दोष हो जायगा। इस कार्तालाप ही से पात्रों के चरित्र-चित्रण में विशेष सहायता मिलती है । नाटक- कार को घटना के समय तथा देश के अनुसार पात्रों का चरित्र गुफित करना पड़ता है। घटना यदि दो सहस्त्र वर्ष पहिले के किसी दक्षिण राजवंश की है और नाटककार उसे वर्तमान समय के राजस्थान के किसी राजवंश की रीति-प्रथा आदि लेकर निर्माण करता है तो वह दोनों ही के विरुद्ध चलता है और वह कभी सफल नहीं हो सकता । नाटक का कुछ उद्देश्य भी होना चाहिए और वह जिस उद्देश्य से लिखा गया है उसका उसी कथावस्तु. के साथ विकास होते चलना चाहिए । नाटककार के निजी भाव, अनुभव, विचार आदि भी क्रमशः आप से आप इस कथावस्तु के विकास के साथ-साथ लगे रहते हैं, जिससे हर एक कुशल नाट्य-