पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२८१

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२७४ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इस सत्यवीर के प्रभूत ऐश्वर्य, अटलशक्ति, विवेक ज्ञान, धर्म- प्रियता, दानशक्ति, शील, धर्मनिष्ठा, क्षमा आदि गुणों को देख कर एक अन्य पात्र को ईर्ष्या होती है और वह विश्वामित्र से क्रोधी ब्राह्मण में उनके प्रति क्रोध उत्पन्न कर उन्हें हरिश्चन्द्र के सत्य की परीक्षा लेने को उभाड़ता है। अब एक पक्ष अपने सत्य-पथ से जरा भी विचलित न होते हुए सभी रुकावटों को रौंदता हुआ आगे बढ़ता चला जाता है और दूसरा अपनी षड्यंत्रकारिणी दुष्ट बुद्धि को बाधाएँ उपस्थित करने में अंत तक प्रेरित करता रहता है। महाराज हरिश्चन्द्र स्वप्न में दिए हुए दान को सत्य मानकर दानपात्र ब्राह्मण के नाम परराज्य चलाते रहने का प्रबंध कर रहे थे कि स्वप्न के वही ब्राह्मणदेव क्रोध के मूर्तिरूप आ उपस्थित होते हैं और जब बकमक करते हुए भी स्वप्न का प्रतिगृहीत समप्र राज्य पा जाते हैं, तब दक्षिणा के बहाने उस सत्यवीर नायक को सस्त्रीक बिकने पर वाध्य करते हैं। इस 'अकारण कोही ब्राह्मण' बने हुए क्षत्रिय के दुर्व्यवहार पर भी सच्चे क्षत्रिय शूरवीर में ब्राह्मणों के प्रति जो उदारता थी वह उक्त महाशय को अंत तक सौम्य बनाए रखदी है । कुशल नाटककार ने प्रारम्भ से अंत तक इस प्रकार घटना-संगठन किया है कि दर्शकों की नायक के प्रति ज्यों ज्यों सहानुभूति आकर्षित होती जाती है, त्यो त्यों तपस्वी प्रतिनायक की ओर उनकी अश्रद्धा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। महाराज हरिश्चन्द्र राज, स्त्री, पुत्र तथा शारीरिक स्वातंत्र्य सब कुछ खोकर भी अपना शील, सौम्यता, सत्य में दृढ़ता तथा ईश्वर- भक्ति नहीं त्यागते । दर्शक उनकी ओर श्रद्धा-पूर्ण नेत्रों से देखते रहते हैं और अंत होते होते स्यात् ही उनमें ऐसा कोई निष्ठुर हृदय होगा, जिसकी आँखें न डबडबा आएँ । प्रतिनायक विश्वा- मित्र की कुटिलता देखते-देखते दर्शकों को उन पर घृणा होजाती है।