पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२८२

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चरित्र-चित्रण] यहाँ तक की स्वर्गस्थित देवगण भी धिक्कार देने में पीछे नहीं रह जाते । राजा हरिश्चन्द्र का यह सत्यत्रत लोकव्यापो व्यापार हो उठा था, और केवल मनुष्यों हो का नहीं, देवगण को भी दृष्टि उसी ओर रहने लगी थी। राजा हरिश्चन्द्र अपने गौरव तथा आत्माभिमान को कहीं नहीं भूले हैं । उन्हें अपने उच्चतम वंश का, सहज क्षात्रधर्म का तथा सत्यव्रत का सच्चा दर्प था। दक्षिण-रूपी ऋण रहते शरीर बेंच देने पर सहस्र कष्ट होते हुए भी वे मृत्यु के आवाहन करने का विचार भी लाना अधर्म समझते थे। कहते हैं- 'तनहिं बंचि दासी कहवाई। मरत स्वामि श्रायसु बिनु पाई। करु न अधर्म सोचु मन माहीं। पराधीन सपने सुख नाहीं ।। कापालिक जब इनकी सहायता से रसेन्द्र आदि सिद्ध करके ले आता है और इन्हें देने लगता है, तब यह उसे अपने स्वामी ही को देने के लिए कहते हैं, क्योंकि वे समझते थे कि 'देह के साथ ही अपना स्वत्वमात्र बेंच चुका।' इसी पर धर्म आश्चर्य- चकित होकर कहता है कि- चलै मेरु बरु प्रलय जल पवन झकोरन पाय । पै बीरन के मन कबहुं चलहिं नहीं ललचाय । उदारता नायक में इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि सब महाविद्याएँ स्वतः इनकी वशवर्तिनी होकर आईं, तब इन्होंने उन्हें अपने सभी कष्टों के मूल विश्वामित्र के पास अपनी ओर से केवल इस कारण भेज दिया कि 'उन्होंने उनके वास्ते बड़ा परिश्रम किया था।' ब्राह्मणों के प्रति उनका यह औदार्य तथा आदर उनके सभी आचरणों से व्यक्त होता था। महारानी शैव्या सी स्त्री के दासी होकर जाते