पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२८३

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२७६ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्रः समय कौडिन्य महाराज के बालक रोहिताश्व को व्यर्थ ढकेलने तथा उस बालक के रोते हुए उठ कर क्षोभ तथा क्रोध भरी आँखों से माता पिता की ओर देखने पर, वे केवल इतना ही कहते हैं कि 'ब्राह्मण देवता' बालकों के अपराध से रुष्ट न होना।' और पुत्र से कहते हैं कि 'ब्राह्मण का क्रोध तो सब दशा में सहना चाहिए।' 'चांडाल-याजिन्' की कुटिलता से जब हरिश्चन्द्र चांडाल-द -दास हुए तब इन्होंने अपने स्वामी के प्रति जो स्वामिभक्ति लाई है वह उस स्वामिभक्ति से कठिनतर थी जो वे स्वयं अपने कर्मचारियों तथा दासों से चाहते रहे होंगे । सत्य ही, ऐसे सत्यवीर सम्राट के सभी कार्य आदर्श थे। सांसारिक सुख-दुख के अनुभव कटु होते ही हैं। ऐसी कष्टमय परिस्थिति में पड़ कर कितने साधारण पुरुष क्या न क्या कर बैठेते हैं। इसी कटु अनुभव तथा स्वामिभक्ति के कारण आती हुई निधि, भगवती के आशीर्वाद सभी को अपने मालिक ही के लिए माँग लिया था और महाविद्याओं, अष्ठसिद्धि, नवनिधि तथा बारह प्रयोगों को विश्वामित्र, योगियों, सज्जनों तथा साधकों के पास विदा कर दिया था। पुत्र की मृत्युपर निय- मानुसार उसके अधखुले कफन से आधा अंश माँग कर इन्होंने देवताओं तक से कहला डाला- अहो धैर्यमहो सत्यमहो दानमहो बलम् । त्वया राजन् हरिश्चन्द्र सर्वलोकोत्तरं कृतम् ।। दानवीर जब दान देने में अपने को असमर्थ पाता है और याचक सम्मुख उपस्थित होता है तब उसे कितनी मार्मिक व्यथा होती है, यह भी एक स्थान पर बड़ी सुन्दरता से दिखला दी गई है। आरम्भ में नारद जी से नाटककार ने महाशयता की परिभाषा इस प्रकार कराई है कि 'जिसका भीतर बाहर एक सा हो और