पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२८४

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“चरित्र-चित्रण] २७७ विद्यानुरागिता, उपकारप्रियता आदि गुण जिसमें सहज हो, अधि- कार में क्षमा हो, विपत्ति में धैर्य, संपत्ति में अनभिमान ओर युद्ध में जिनकी स्थिरता हो, वही ईश्वर को सृष्टि का रत्न है और उसो की माता पुत्रवती है।' राजा हरिश्चन्द्र महाशय तथा सृष्टि के रत्न थे और यही कारण है कि आज तक सत्यवीरों की सूची में पहिला नाम इन्हीं का रखा जाता है । प्रतिनायक विश्वामित्र इंद्र द्वारा प्रेरित होने पर ही हरि- श्चन्द्र के विरुद्ध उठे थे पर उनका 'इस पर स्वतः भी क्रोध' था । वशिष्ठ ऋषि से विश्वामित्र की शत्रुता पुराण-प्रसिद्ध है और राजा हरिश्चन्द्र इन्हीं वशिष्ठ जी के यजमान थे। जिस समय आप पहिले पहिल रंगमंच पर पधारते हैं और राजा उनका शिष्टाचार करते हैं तब आप रे क्षत्रियाधम, सूर्यकुलकलंक, दुष्ट' आदि से उन्हें संबोधित करते हैं। इसके बाद पैर पर गिर कर विनय करने पर भी आप क्रोध से कहते हैं 'सच है रे पाप पाषंड मिथ्या दान- वीर ! तू क्यों न मुझे “राजप्रतिग्रह-पराङ मुख" कहेगा" क्योंकि तैने तो कल सारी पृथ्वी मुझे दान दी है, ठहर देख इस झूठ का कैसा फल भोगता है । हाँ ! इसे देख कर क्रोध से जैसे मेरी दाहिनी भुजा फिर शाप देने को उठती है वैसे ही जातिस्मरण के संस्कार से बाई भुजा फिर से कृपाण ग्रहण किया चाहती है। (अत्यंत क्रोध से लंबी साँस लेकर और बाँह उठा कर) अरे ब्रह्मा! सम्हाल 'अपनो सृष्टि को, नहीं तो परम तेजपुंज दोघं तपोवर्द्धित मेरे आज इस असह्य क्रोध से सारा संसार नाश हो जायगा, अथवा संसार के नाश ही से क्या ? ब्रह्मा का तो गर्व उसो दिन मैंने चूर्ण किया, जिस दिन दूसरो सृष्टि बनाई, आज इस राजकुलांगार का अभिमान चूर्ण करूँगा, जो मिथ्या अहंकार के बल से जगत में दानी प्रसिद्ध हो रहा है।