पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२८५

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२७८ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इस प्रकार वह अनेक तरह के वाग्वाण छोड़ते हुए राजा का सर्वस्व अपहरण कर उसे शरीर बेंच कर दक्षिणा चुकाने काशी भेज देते हैं। दर्शकों को इनके प्रति इतने ही से घृणा उत्पन्न हो जाती है । काशी में तकाजा करने पहुंचने पर आप कहते हैं कि 'इसके सत्य, धैर्य और विनय के आगे हमाराकोधकुछ काम नहीं करता। यद्यपि यह राज्यभ्रष्ट हो चुका पर जब तक इसे सत्य- भ्रष्ट न कर लूँगा तब तक मेरा संतोष न होगा। (आगे देखकर), अरे ! यही दुरात्मा ( कुछ रुककर) वा महात्मा हरिश्चन्द्र है ? (प्रगट ) रे आज महीने में कै दिन बाकी हैं ? बोल कब दक्षिणा देगा ? इससे घृणा बढ़ती है और साथ ही सच्चे गुण का असर कठोर हृदय पर भी होता दिखलाकर नाटककार ने इसे अस्वाभा. विक होने से बचा लिया। यहीं से यह भी लक्षित करा दिया है कि प्रतिनायक पर नायक के लोकोत्तर गुण का असर हो रहा है, और उसमें द्वेष की मात्रा कम होती जारही है,जो दो एक परीक्षा के बाद ही मिट जायगी तथा उसके स्थान पर राजा के प्रति उनमें पूर्ण श्रद्धा उत्पन्न हो जायगी। परीक्षक कठोर होता ही है और क्षत्रिय से ब्राह्मण का पद प्राप्त करने पर भी उनमें अहंकार, कठो-. रता तथा शर प्रतिभट के प्रति आदर दिखलाना अत्यंत स्वाभा- विक हुआ है। महारानी शैव्या तथा राजकुमार रोहिताश्व का चरित्र उन्हीं के अनुकूल चित्रित हुआ है। नाटककर ने सहज स्त्री-सुलभ संकोच, लज्जा, पति के प्रति दृढ़ विश्वास तथा श्रद्धा उनकी एक एक बात में भर कर रख दी है। पति ही पत्नी का सर्वस्व है, ऐसा मानते हुए भी वह अपनी शंका तथा अपनी सम्मति कहः देना उचित सममती थीं। उपाध्याय से कहला कर महारानी के