पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२८६

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चरित्र चित्रण] २७६ सौंदर्य, सौकुमार्य तथा शील प्रगट करते हुए 'तुम्हारे पति हैं न' प्रश्न ने सती स्त्री के सतीत्व को दमका दिया है। जिस पति के कारण वह एक महाराज की पुत्री और एक सम्राट् की पुत्रवधू हो कर तथा अपने छोटे से पुत्र को लेकर, उस समय दासी होने जा रही थी, उसके प्रति उसका भाव क्या था, यह उसकी सौम्य मूक दृष्टि ही बतला रही है। पति की ओर देखकर नीचे दृष्टि कर लेने में कितना व्यथापूर्ण भाव है कि आज वह अपने ऐसे सर्व- श्रेष्ठ रत्न को चिथड़े में रखा हुआ सब को दिखला रही है। पर रत्न रत्न ही है । इसके सिवा पुत्र-शोक पीड़िता शैव्या के सारे रोने कलपने को पढ़िए पर एक भी शब्द ऐसा न मिलेगा, जिससे उसका पति के प्रति अविश्वास या रोष का संदेह मात्र भी हो। स्मशान में चांडाल-दास पति के साथ उसका वही व्यवहार रहा जो राज सिंहासन सुशोभित सम्राट् पति के साथ था। महारानी शैव्या आदर्श स्त्री-रत्न थीं । रोहिताश्व बालक था । उसका निज का चाहे कुछ भी आदर्श चरित्र न दिखलाया गया हो, पर उसी पर सत्य परीक्षा की अंतिम कसौटी कसी गई थी, जिसका कस विद्युत् से भी बढ़ कर प्रज्वलित हो उठा था। यही बालक नाटक के करुण रस का स्रोत है और उसी पर की गई परीक्षा सदा सोने वाले आरामपसंद भगवान को मृत्युलोक तक खींच लाई थी। सहायक पात्रों में इन्द्र और नारद ही मुख्य हैं। इन्द्र का स्व. भाव वही दिखलाया गया है जो उनके लिये प्रायः प्रसिद्ध है, पर नारद जी का इसके विपरीत चित्रित किया गया है। वास्तव में वे पुराणों से कहाँ तक कलह-प्रिय ज्ञात होते हैं, इस पर विशेष रूप से तो नहीं कह सकता, पर तब भी वे कहीं इस स्वभाव के मुझे नहीं मिले । वे विरक्त थे, इससे दक्ष की संतान को उल्टा उपदेश देकर वन में विदा कर दिया और स्वयं शापित होकर घूमने लगे।