पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२८९

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२८२ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की दृढ़ता का भाव होना चाहिए था। वास्तव में नाटककार ने भी भारतभाग्य का अंत दिखलाकर सोए हुए भारत का नहीं, दर्शकों पर विशेष रूप से स्थायी प्रभाव डालने का प्रयत्न किया है। भार- तीयों में क्या क्या दुर्गण आ गये थे, जिनके कारण वे इस प्रकार दुर्दशाग्रस्त हो गये थे, इनको 'भारतदुर्दैव' के प्रयत्नों के रूप में बड़ी मार्मिकता से दिखलाया है। उसके सेनापति 'सत्यानाश' ने आकर धर्म की आड़ में होते हुए सामाजिक दोषों पर खूब चुनौ- तियाँ ली हैं । अपव्यय, कचहरी, फूट आदि दोष गिनाए गए, जो आज तक वर्तमान हैं। इसके अनंतर भारतदुर्दैव अपने अन्य सैनिकों को भारत भेजता है। पहिले 'रोग' आता है। इसको लाने का मुख्य कारण भारतीयों की वह मूर्खता दिखलाना था जो बीमारी आने पर दवा इत्यादि न कर भूत-प्रेत पूजना, शुक्र- वार को फुकवाना आदि ही अलं समझते थे और हैं। इसके अनंतर आलस्य आता है, जिसका चित्रण बहुत अच्छा हुआ है। यह हम भारतीयों का जीता-जागता नमूना है। मदिरा देवी के प्रभुत्व का वर्णन बहुत उचित हुआ है । अभी तक नशा की वस्तुओं पर पिकेटिंग होती रही थी। इसके अनंतर अन्धकार भेजा गया। इस प्रकार बराबर प्रयत्नशील रहते हुए कर्मठ 'भारतदुर्दैव' सफल सा होता दिखलाया गया है। पाँचवें अंक में कुछ जागृति के लक्षण आशा रूप में दिखलाए गए हैं। पुस्तक, अखबार, कमीटी आदि उसके चिह्न हैं, और भारतदुर्दैव के प्रयत्नों के निराकरण के उपाय सोचना भारतोदय की आशा करना है। नीलदेवी में सूर्यदेव नायक तथा अब्दुशरीफ़ खाँ प्रतिना- यक हैं। पहिले का चित्र सच्चे राजपूत वीर सा खींचा गया है। वह धर्म युद्ध वीर है। प्रतिनायक का चित्र भी ठीक है। वह शबखू अर्थात् रात्रि-आक्रमण में बहादुर है, अवसर का बंदा है ।