पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२९२

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प्राकृतिक वर्णन की कमी] २८५ क्षेत्र हैं और इनमें विचरण करने वाले कविगण दो कोटि में विभक्त किए जा सकते हैं। ऐसे कवियों का भी एक वर्ग होगा, जिन्होंने दोनों ही क्षेत्र को समान रूप से अपनाया है। संस्कृत साहित्यकारों में, आज से एक सहस्र वर्ष पहिले की प्रकृति के प्रति जो भावुकता, प्रेम और तन्मयता थी वह बाद के कवियों में नहीं रह गई। आदिकवि वाल्मीकि ऋषि से प्रारम्भ हुई यह परंपरा कालिदास तथा भवभूति तक तो पहुँची, पर उसके बाद नर-प्रकृति ही काप्राधान्य बढ़ता चला गया। प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन गौण हो गया। इसका एक मुख्य कारण इतिहास यही बतला रहा है कि हम लोगों का वन्य जीवन का क्या, ग्रामीण जीवन तक का ह्रास होता गया और क्रमशः नागरिक जीवन ही ही प्रधान होता गया। कविगण बड़े बड़े समृद्धिशाली नगरों में बसने लगे और प्राकृतिक दृश्यों के देखने का उन्हें कम सौभाग्य मिलने लगा। ऐसी दशा में स्वभावतः एक विषय-क्षेत्र संकुचित हो गया और दूसरा विस्तृत हो उठा। निर्मल नदी की धारा के दोनों ओर फैले हुए जंगलों की शोभा के स्थान पर नगर के कृत्रिम जलाशय उद्यानादि ही की शोभा सब कुछ रह गई। हिन्दी काव्यजगत् का निर्माण ठीक ऐसी ही परिस्थिति में हुआ था और इसी से उसमें वाल्मीकि आदि से कवि कम हुए । भारत का स्वातंत्र्य-सूर्य अस्त हो रहा था और कुछ वीरगण आशा की अंतिम ज्योति कायम रखने का निष्फल प्रयत्न कर रहे थे। उन्हीं वीरों की गाथाएँ बड़ी ओजस्विनी भाषा में कह कर मरे दिल को जिलाना ही उस समय कवियों का कार्य रह गया था। इसके अनं- तर आशा-दिवस नैराश्य-यामिनी में बदल गया और परमाशा-रूपी ईश्वर की ओर सब की दृष्टि फिरी । भक्ति काल के कविगण राम और कृष्ण की कथा लेकर अपनी अपनी वाणी पवित्र करने लगे।