पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२९५

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गीतिकाव्य] २८९ सरलता तथा तन्मयता ऐसी भी है कि इसे सुनकर निर्गुण उपासना की ओर ऐसे ही कोई भूले भटके-झुकते हैं । रसराज के देवता श्रीकृष्ण ही की बाल्य-लीला तथा प्रेममयी यौवनलीला के मनोहर चित्र इनमें अंकित होते आए हैं और होंगे। क्यों न हों ? ये दोनों काल होते ही कितने मनोहर हैं । अष्टछाप के कवि भक्तों ने भगवान की प्रेमलीला का कीर्तन कर जो सागर तैयार किए हैं उनमें अवगाहन कर प्रत्येक प्राणी पवित्र हो सकता है। यह पदावली इतनी प्रचुर है और वियोग तथा संयोग शृंगार और वात्सल्य दोनों ही क्षेत्रों में इन लोगों की इतनी पहुँच थी कि बाद के कवियों के कहने के लिए इन लोगों ने कुछ न रख छोड़ा। यही कारण है कि इस परंपरा का सौर काल के बाद बहुत ह्रास रहा और कभा कभी एकाध भक्त कवि कुछ कहते सुनाई पड़ जाते थे। ऐसे कवियों का बाहुल्य न होने पर भी इस दिव्य प्रेम-संगीत की स्वर-लहरी सदा सरस हृदयों को तरंगित करती रहती थी। बीच में निर्गुनिए कवि भी बहुत हुए और बहुत सा साधारण ज्ञान भी वे छाँट गए पर उनसे कुछ विशेष लाभ न हुआ और कुछ दिन बाद उनका ज्ञान उन्हीं के मानने वाले कुछ पंथियों में रह गया। कहा जा सकता है कि इस गीतिकाव्य की परम्परा के प्रायः अंतिम कवि भारतेन्दु बा० हरिश्चन्द्र ही हुए हैं। इन्होंने लगभग डेढ़ सहस्र के पद बनाए हैं, जिनमें अधिकतर श्रीकृष्ण ही की लीला-संबधी हैं। इनमें विनय के पद, श्रीकृष्ण जी की बाल- लीला तथा गोपियों के प्रेम-सम्बन्धी तीन प्रकार के भजन हैं। कुछ साधारण मानव-सम्बन्धी भी पद हैं। इन पदों के मुख्य रस- शृगार तथा वात्सल्य ही हैं पर वीर, शांति, करुण आदि रस भी कुछ पदों में आगए हैं । श्रृंगार से उसके संयोग यथा वियोग दोनों ही पक्ष लिए गए हैं १६ N