पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२९६

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२६० [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र श्री राधाकृष्ण की युगल मूर्ति का ध्यान कैसा अनुपम है, स्वामी तथा स्वामिनी दोनों ही की शोभा का कैसा सुन्दर मिश्रण इस पद में है- रे मन कर नित-नित यह ध्यान । सुन्दर रूप गौर श्यामल छबि जो नहिं होत बखान ।। मुकुट सीस चंद्रिका बनी कनफूल सुकुण्डल कान । कटि काछिनि सारी पग नूपुर बिछिया अनवट पान ।। कर कंकन चूरी दोउ भुज पै बाजू सोभा देत । केसर खौर बिंदु सेंदुर को देखत मन हरि लेत ।। मुख मैं अलक पीठ 4 बेनी नागिनि सी लहरात । चटकीलो पट निपट मनोहर नील पीत फहरात ।। मधुर मधुर अधरन वंसी धुनि तैसी ही मुसकानि । दोउ नैनन रस भीनी चितवनि परम दया की खानि ।। ऐसो अद्भुत भेष बिलोकत चकित होत सब श्राय । 'हरीचंद' बिन जुगल कृपा यह लख्यो कौन पैंजाय ।। बाललीला का केवल एक पद लीजिए। छोटे से बालक श्रीकृष्ण आँगन में खेल रहे हैं। उनके अंग प्रत्यंग की शोभा का वर्णन किया गया है, जिनमें उत्प्रेक्षादि अलंकार आप से आप प्रस्फुटित होते गए हैं। श्राजु लख्यो आँगन में खेलत यशुदा जी को बारो री। पीत मँगुलिया तनक चौतनी मन हरि लेत दुलारो री ॥१॥ अति सुकुमार चन्द्र से मुख पै तनक डिठौना दीनो री। मानहुँ श्याम कमल पै इक अलि बैठो है रंग भीनो री ॥२॥ उर बधनहा बिराजत सखि री उपमा नहिं कहि श्रावैरी। मनु फूली अगस्त की कलिका शोभा अतिहि बढ़ावैरी ॥ ३ ॥