पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२९८

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२६२ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जो पै श्री राधा रूप न धरती। प्रेमपंथ जग प्रगट न होतो ब्रज-बनिता कहा कहतीं। पुष्टि मार्ग थापित को करतो ब्रज रहतो सब सूनो । हरि लीला काके सँग करते मंडल होतो ऊनो ॥ रास मध्य को रमतो हरि सँग रसिक सुकवि कह गाते । 'हरीचन्द' भव के भय सों भजि कि हि के शरणहिं जाते। श्रीराधिकाजी की बाल लीला-वर्णन का एक उदाहरण लीजिए- मनिमय आँगन प्यारी खेले । किलकि किलकि हुलसत मनहीं मन गहि अँगुरी मुख मेलै ॥ बड़भागिनि कीरति सी मैया गोहन लागी डोलै कबहुँक लै झुनझुना बजावति मीठी बतियन बोलै ॥ अष्ट सिद्धि नव निधि जेहि दासी सो ब्रज शिशु-बषुधारी । जोरी अविचल सदा बिराजो 'हरीचन्द' बलिहारी॥ दोनों में प्रेम हो गया है । एक दिवस युगल प्रेमी एक स्थान पर विराजमान थे कि श्री स्वामिनी जी ने कहा कि वह गान एक बार फिर गाकर सुना दीजिए । 'मोहन चतुर सुजान' चूकने वाले न थे, उन्होंने ऐसा सनृत्य गान किया कि चन्द्र की गति भी रुक गई। सुनिए- फिर लीजै वह तान अहो प्रिय फिरि लीजै वह तान । निनि धध पप मम गग रिरि सासा मोहन चतुर सुजान ।। उदित चन्द्र निर्मल नभमंडल थकि गए देव-विमान । कुनित किंकिनी नूपुर बाजत झनझन शब्द महान ॥ मोहे शिव ब्रह्मादिक वहि निशि नाचत लखि भगवान । 'हरीचन्द' राधामुख निरखत छूट्यो सुरतिष-मान ॥ भत्तों ने श्रीराधिका जी का श्रीकृष्ण जी से विवाह हुआ मान