पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३००

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२६४ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कहाँ गए मेरे बाल सनेही। अबलौं फटी नाहिं यह छाती रही मिलन अब केही ।। फेर अबै वह सुख धौं मिलिहै जिश्रत सोचि जिय एही। 'हरीचन्द' जो खबर सुनावै देहुँ प्रान धन तेही ।। श्रीकृष्ण उपस्थित नहीं हैं पर उन्हें ध्यानावस्था में संबोधित करते हुए एक सखी कहती है कि- पियारे तजी कौन से दोष । इतनो हमहूँ तो सुनि पावै फेरि क% संतोष ॥ जो कोउ तुमरो होइ सोइ या जग मैं बहु दुख पावै ? यह अपराध होइ तो भाखौ जासों धीरज पावै ।। कियो और तो दोष कछ नहिं अपनी जान पियारे तुमरे ही ह रहे जगत में एक प्रेम पन धारै ॥ यासों चतुर होइ' जग मैं कोउ तुम सों प्रेम न लावै । 'हरीचंद' हम तो अब तुमरे करौ जोई मन भावे ।। एक सखी नित्य की तरह नंदकिशोर को देखने के लिये सुबह होते ही नंद बाबा की पौरी पर पहुँची पर वहाँ के सन्नाटे को देख कर उसे श्रीकृष्ण के मथुरा-गमन का याद पड़ा और वह बेहोश हो गई। सखियाँ यह देखकर दौड़ पड़ी और उसे घर उठा लाई। यहाँ मधुकर (उद्धव) के आने का संदेश सुनकर उसे होश आया- नद-भवन हौ श्राजु गई ही भूले ही उठि भोर । जागत समय जानि मंगल मुख निरखन नन्दकिशोर ॥ नहिं बंदीजन गोप गोपिका नाहिंन गौ। द्वार । नहिं कोउ मथत दही नहिं रोहिनि ठाढ़ी लै उपचार ।। तब मोहि सरत परी घर नाहीं सुन्दर श्याम तमाल ।। मुरछित घरनि गिरी द्वारहि पै लखि धाई ब्रजबाल ।।