पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३०३

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गीति-काव्य] २६७ कर आए हैं। चलिए, शिष्य को पहिले खोजकर तब लेक्चर- बाजी कीजिए। वियोग-पक्ष की दश दशाएँ वतलाई जाती हैं। उन सभी का भारतेन्दु जी की पदावली में समावेश हुआ है । प्रिय की अभि- लाषा, चिंता तथा स्मरण करते करते उनका चित्त बहकने लगता है, वे प्रलाप करने लगती हैं- नखरा राह राह को नीको। इत तो प्रान जात है तुव बिनु तुम न लखत दुख जी को ॥ खुटाई पोरहि पोर भरी। हमहि छाँड़ि मधुबन में बैठे बरी कर कुबरी ॥ एक सखी प्रिय से मिलने के लिये कुञ्ज में गई पर जब उसे उनके वियोग का एकाएक स्मरण आया तब वह मूर्छित हो पड़ी। होश आने पर वह उन्मादावस्था में कह रही है कि क्या सारे संसार की अमरता ब्रह्मा ने हमारे ही कपाल में लिख रक्खा है- इतने हूँ पै प्रान गए नहिं फिरहू सुधि श्राई अधराती। हौं पापिन जीवति ही जागी फटी न अजौं कुलिस की छाती ॥ फिर वह घर व्यवहार वह सब करन परै नितहीं उठि माई। 'हरीचन्द' मेरे ही सिर विधि दीनी काह जगत अमराई ॥ एक सखी कैसी मीठी चुटकी लेती है। साधारणत: पुरानी चीजें निकाल कर लोग नई लेते हैं। उसी नियम के अनुसार क्या श्रीकृष्ण भी पुरानी मित्रता त्याग अब नई मित्रता के फंदे में पड़ गए- पुरानी परी लाल पहिचान । अब हमको काहे को चीन्हो प्यारे भए सयान ॥ नई प्रीति नए चाहनवारे तुमहूँ नए सुजान । 'हरीचन्द' पै जाइ कहाँ हम लालन करहु बखान ॥