पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३०४

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२६८ 9 [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र स्मृति सुख और दुख दोनों की कारण होती है । प्रिय के वियोग में उसकी स्मृति दुखद ही होती है, इसीलिए वह दुखित हो कहती है- पियारे क्यों तुम आवत याद । छूटत सकल काज जग के सब मिटत भोग के स्वाद ॥ जब लौं तुम्हरी याद रहै नहिं तब लौं हम सब लायक । मरण के पहिले अंतिम दशा जड़ता आती है, उसमें अंगों तथा मन को चेष्टाहीन हो जाना चाहिए पर श्री राधिका जी की जड़ता वह तन्मयता है कि उन्हें वियोग का भान ही नहीं रह जाता, वह अपने ही को श्रीकृष्ण समझती हैं, वियोग हो तो किसका ? लाल के रंग रँगी तू प्यारी। याही ते तन धारत मिस कै सदा कसू भी सारी ॥ लाल अधर कर पद सब तेरे लाल तिलक सिर धारी। नैनन हूँ में डोरन के मिस झलकत लाल बिहारी ॥ तनमै भई, नहीं सुध तन की नख शिख तू गिरधारी। 'हरिचन्द' जग बिदित भई यह रेम प्रतीति तिहारी ।। इसके सिवा भारतेन्दु जी ने साधारण गाने के लिये होली, ठुमरी, सोरठ आदि बहुत बनाए हैं, जिनके एक-एक दो-दो उदाह- रण देने से कुल खूबियाँ प्रगट भी न होंगी और पुस्तक का श्राकार भी बढ़ जायगा, इसलिए अब वेवल विन्य के कुछ पदों का उदा- हरण दे दिया जाता है। जगत जाल में नित बँध्यों, परयो नारि के फंद । मिथ्या अभिमानी पतित, झूठो कवि हरिचन्द ॥ ने विनय के अनूठे अनूठे पद कहे हैं। वे कहते हैं कि कहौ किमि छूटै नाथ, सुभाव । काम क्रोध अभिमान मोह सँग तन को बन्यो बनाव ।।