पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३०५

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गीति -काव्य] २६६ ताहू मैं तुव माया सिर पै औरहु करन कुदाव । 'हरीचन्द' बिनु नाथ कृपा के नाहिंन और उपाव ।। सत्य ही इतने जंजाल में रहते और इतने सांसारिक मोहजाल के फंदों में फँसते हुए मनुष्य की शक्ति क्षीण हो जाती है । उसे केवल एक परमाशा रूपी ईश्वर ही की आशा रह जाती है । यही 'उस दरबार की' विशेषता है कि लोभ, मद, मोहादि में लिप्त पतितों ही की वहाँ पूछ होती है । सुनिए- बलिहारी है या दरबार की। बिधि निषेध मरजाद शास्त्र की गति नहिं जहाँ प्रकार की ॥ नेमी धरमी ज्ञानी जोगी दूर किए जिमि नारकी । पूछ होत जहँ 'हरीचन्द' से पतितन के सरदार की ॥ भक्त का अपने इष्टदेध पर कितना विश्वास होता है, यह नीचे लिखे पद में देखिए- प्रभु की कृपा कहाँ लौं गैये करुना में करुनानिधि ही के इती बड़ाई पैयै ॥ डार डार जौ अघ मेरे तौ पात पात वह बोले । नदी नदी जो पाप चलत तौ बिन्दु बिन्दु वह डोलै ॥ थल थल में छिपि रहत जु यह वह रेनु रेनु ह धावै। दीप दीप जो यह समान वह किरिन किरिन बनि श्रावै॥ काकी उपमा वाहि दीजिए व्यापक गुन जेहि माहीं। हिय अन्तर अँधियार दुराने अघहूँ नहि बचि जाहीं ॥ सिन्धु लहर हू सिन्धुमयी है मूढ़ करै जो लेखे । नाहीं तो 'हरिचन्द' सरीखे तरत पतित कहुँ देखे । कृपापात्र के पाप यदि डार डार हैं तो उसकी कृपा पात पात तक पहुँचीहुई है।भाव यही है कि पतित और उसके पाप उस परमे- श्वर के सर्वव्यापी दया में 'सिंधु में बुन्द' के समान हैं तथा उसे 1 ।