पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३०८

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३०२ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाषा तथा इस खड़ी बोली के मिश्रण से उर्दू भाषा की उत्पत्ति हुई, अर्थात् फारसी+खड़ी बोली हिन्दी= उर्दू। अब इनमें से किसी भी पहिली दो भाषाओं को उर्दू को जनक कहना नितांत अशुद्ध है। यदि ऐसा कहा जाय कि उर्दू से फारसी शब्दावली निकाल कर उसके स्थान पर तत्सम शब्दों को रखकर खड़ी बोली बना ली गई, तो यह भी क्यों नहीं कहा जा सकता कि उर्दू से हिन्दी क्रिया पद आदि निकालकर फारसी बना ली गई है। दोनों ही समानरूपेण निरर्थक कथन हैं। साथ ही यह भी कहना उचित जान पड़ता है कि जब से हिन्दू मुसलमान संघर्ष आरम्भ हुआ है तभी से दोनों धर्म के सहृदय पुरुषों ने एक दूसरे की भाषा को अपनाया है। जिस प्रकार हिन्दी के कवियों ने फारसी शब्दों को अपनी कविता में स्थान देना शुरू कर दिया उसी प्रकार मुसल- मान कविगण हिन्दी को अपनी कविता में स्थान देते रहे । जिस प्रकार हिन्दी साहित्य के इतिहास में रहीम, रसखान, जायसी आदि मुसलमान कवियों का उल्लेख बड़े आदर से होता है, उसी प्रकार उर्दू साहित्य क्षेत्र में हिन्दू शायरों ने भी कुछ कम 'खुश- इलहानी' नहीं की है, चाहे उन्हें उसके साहित्य के इतिहास में आदर मिले या न मिले । हिन्दी साहित्य की कवि-परंपरा की भाषाओं में ब्रजभाषा तथा अवधी प्रधान हैं। भारतेन्दु जी ने ब्रजभाषा ही में कविता की है पर वह जिस खड़ी बोली हिन्दी को राष्ट्रभाषा या सार्व- देशिक भाषा बनाने का प्रयास जन्म भर करते रहे, उसमें भी कुछ कविता की है । उसके विषय में इनकी क्या राय थी यह उनके एक पत्र से ज्ञात होता है जो १ सितम्बर सन् १८८१ ई० के 'भारतमित्र' में प्रकाशित हुआ था। उसमें लिखा है कि-"प्रचलित साधुभाषा में कुछ कविता भेजी है। देखियेगा कि इसमें क्या 9