पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३१०

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फूले । हैं भूले ॥ ३०४ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र उपवन में कचनार बनों में, टेसू मदमाते भौरे फूलों पर, फिरते कहाँ हो हे हमारे राम प्यारे । किधर तुम छोड़ कर मुझको सिधारे ।। बुढ़ापे में मुझे यह देखना था। इसी को भोगने को मैं बचा था ।। छिपाई है कहाँ सुन्दर वह मूरत । दिखा दो साँवली सी मुझको सूरत ।। गई सँग में जनक की जो लली है। उसी से मेरे दिल में बेकली है ।। पूर्वोक्त उद्धरणों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि इन रचनाओं में कवि का हृदय नहीं है। यह उनके रुचि-वैचित्र्य के कारण की गई रचना है। इससे तो कहीं अच्छी खड़ी बोली की कविता इनकी लावनियाँ हैं, जिनके कुछ उद्धरण देकर इनकी उर्दू कविता पर विचार किया जायगा। दिलबर, इश्क में दिल को एक मिलावे । अपने को खोए तब अपने को पावे ।। दिलबर को एक करके अपने में साने। इस दुनिया को इक अजब तमाशा जाने।। मैं क्या हूँ इसको जी देकर पहिचाने। अपने को अपना सिरजनहारा माने ।। तुम गर सच्चे हो तो जहाँ को कहते हैं सब क्यों झूठा । तुम निर्गुन हो तो फिर यह गुन जग में सब है किस्का । जो झूठा होता है उसकी बातें होती हैं भूठी। ज्यों सपने की मिली सम्पत कुछ काम नहीं करती। .