पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हैं बल्कि अगर सच कहा जाय तो हिन्दी की तरक्की आप ही से ख्याल करना चाहिए। अगर बाबू साहब तकलीफ गवारा करके अपनी कुल तसनीकात उर्दू में तर्जुमा कर दें तो बिला शक एक बड़ा इहसान उर्दू पढ़े हुए पबलिक पर उनका होगा। उर्दू जुबान निलकुल नाटकों से खाली है । लेकिन हमको उम्मीद है कि अगर ऐसे ही दो-चार लायक फ़ायक शख्स अपने कीमती वक्त को इधर सर्फ करेंगे तो बहुत कुछ दावा इस जुबान को होगा। जिस वक़्त हम बाबू साहिब की 'नीलदेवी' या 'सत्यहरिश्चन्द्र' वगैरह नाटकों को देखते हैं तो एक किस्म का अफसोस होता है और हमारे अफ़सोस की वही वजह है।" उर्दू शैर या गजल फ़खियः कहने की भी प्रथा है। इसका तात्पर्य यही है कि कविगण अपनी कविता की तारीफ़ आप करते हैं । संस्कृत तथा हिन्दी के कवियों ने भी ऐसा किया है पर कुछ ही हद तक। उर्दू शायरों ने ऐसा बहुत किया है पर यह उन्हीं को शोभा देता है जो उस योग्य होते हैं । भारतेन्दु जी ने इस प्रकार के कुछ शैर कहे हैं। मजामीने बलंद अपनी पहुँच जायँगी गईं तक। बतर्जे नौ जमीं में शैर हम प्राबाद करते हैं । उड़ा लाए हो यह तजें सखुन किसके बतायो तो। दमे तकरीर गोया बाग़ में बुलबुल चहकते हैं । जरा देखो तो ऐ अहले-सखुन जोरे सनाअत को। नई बंदिश है मजमू नूर के साँचे में ढलते हैं । 'रसा' महवे-फसाहत दोस्त क्या दुश्मन भी हैं सारे । जमाने में तेरे तर्जे सखुन की यादगारो है ॥ भक्तकवि भारतेन्दु जी बड़े उदार विचारों के थे। उनमें