पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३१६

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अपना ) [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रिहा करता है सैयादे सितमगर मौसिमे गुल में। असीराने कफ़स लो तुमसे अब रुख्मत हमारी है ।। नातवानी ने दिखाया जोर ए 'रसा। सूरते नकशे कदम मैं बस नुमायाँ रह गया । हलकए चश्मे सनम लिख के यह कहता है कलम । बस के मरकज़ से कदम अपना न बाहर होगा। दिल न देना कभी इन संगदिलों को यारो। चूर होवेगा जो शीशा तहे पत्थर होगा ।। ए रसा' जैसा है बरगश्ता जमाना हम से ऐसा बरगश्ता किसी का न मोकद्दर होगा। जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है। उसी का सब है जलवा जो जहाँ में श्राशकारा है।। चमक से बर्क के उस वक वश की याद आई है। घुटा है दम, घटी है जाँ घटा जब से ये छाई है। कौन सुनै कासों कहौं सुरति बिसारी नाह। बदाबदी जिय लेत हैं ए बदरा बदराह ॥ शुअलारू कह तो क्या मिला तुझको । दिल जलों को जला जला करके ।। सर्व कामत गजब की चाल से तुम । क्यों कयामत चले बपा करके। भाषा-सौन्दर्य हिन्दी साहित्य पर भारतेन्दु जी का जिस प्रकार प्रभाक पड़ा था उसी प्रकार हिन्दी काव्यभाषा पर भी पड़ा था। उनके कैदियो। 'केन्द्रविन्दु, घेरे के बीचोंबीच का बिन्दु । अनिः के। समान चमकता हुआ मुख । सरो वृक्ष सा जिसका कद हो