पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३१८

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३१२ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र श्रोता या पाठक के हृदय में उसी तरह झटपट पहुँचा दे। साथ ही यदि यह भाव व्यक्तीकरण प्रसाद-पूर्ण होते हुए सरलता के साथ थोड़े शब्दों में हुआ हो तो सोने में सुगंधि का कार्य कर देता है। इसके सिवा काव्य की भाषा में सौकुमार्य भी होना चाहिए। वर्णनशक्ति सरल होनी चाहिए और वह भी जितने ही स्वाभा- विक ढंग से, बड़े परिश्रम तथा प्रयास से न गढ़ी जाकर, होगी उतनी ही वह लोकप्रिय होगी। काव्य-धारा जितनी सरलता से बहेगी उतनी ही वह सुन्दर, निर्मल तथा कलकल निनादमय होगी और यदि उसका प्रवाह अस्वाभाविक रुकावटों से सरल न हुआ तो वह असुन्दर, गदली तथा खड़खड़ाती गर्जन-तर्जन पूर्ण होगी भाषा का एक यह गुण भी सफल कवियों में होना परमाव- श्यक है कि उनकी भाषा समान रूप से अनेक प्रकार के भावों को व्यक्त कर सके। एक पद में यदि दो तीन भाव आ गए हैं और कवि सबको समान भाषा में व्यक्त नहीं कर सका है तो वह उस पदरचना में सफल नहीं हुआ है । उसका वह कार्य अच्छे वस्त्र में दरिद्र पैवंद लगाने के समान है। भाषा में काव्यप्रवाह के अनुकूल ही चलने की शक्ति होनी चाहिये। जिस कवि की भाषा में आप से आप अलंकारों का प्रस्फुटन होता रहता है, उसी की भाषा भाषाओं की अलंकार है। जब अलंकारों के लिये ही कविता की जाती है तब उसकी भाषा में स्वाभाविकता नहीं रह जाती। अलंकार शोभा बढ़ाने के लिये लाने चाहिए, न कि उनके बोझ से भाषा को बेदम निर्जीव कर डालने के लिये। भारतेन्दु जी की भाषा में स्वच्छंदता तथा सजीवता विशेष रूप से पाई जाती है और वह उनकी प्रकृति के अनुकूल ही है । इसी स्वभाव के कारण इनके हृदय में जो भाव उठते थे, उनका