पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२०

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३१४ [भारतेन्दु हरिश्चन्द्र रुकावट नहीं है । शब्दों की सुकुमारता के लिए कहना ही क्या ? थकावट की छवि पर विचार, रूमाल से पसीना पोंछना, भौंरों को दूर करना, बालों को हटाना और जके से होकर मुख छबि देखते रहना, इन भावों को कवि ने बड़ी कुशलता से एक पद में वर्णन किया है, पर सभी एक दूसरे से इस प्रकार मिले हुए अंत तक चले आए हैं कि कहीं भी भाषा में बेमेलपन नहीं आया है। पूरा वर्णन भी कितना स्वाभाविक है और पूरे छन्द में स्वभा- वोक्ति अलंकार का प्रस्फुटन आप से आप हो गया है । २.देखि घनश्याम घनश्याम की सुरति करि, जियमैं बिरह घटा घहरि घहरि उठे त्यों ही इन्द्रधनु बगमाल देखि बनमाल, मोतीलर पिय की जिय लहरि लहरि उठे 'हरीचन्द' मोर पिक धुनि सुनि बंशीनाद, बाँकी छवि बार बार छहरि छहरि उठे देखि देखि दामिनि को दुगुन दमक पीत, पट छोर मेरे हिय फहरि फहरि उठे ।। विरहिणी के हृदय को वर्षा की शोभा किस प्रकार दुःखदा- यिनी हो रही है ? सर्वप्रथम काले बादल को देखते ही घनश्याम श्रीकृष्ण का स्मरण हो जाता है और उसके हृदय में विरह के वादल घहराने लगते हैं। इन्द्र-धनुष तथा बकों की पंक्ति प्रिय के हृदय पर सुशोभित अनेक रंगों के फूलों की बनमाला तथा मोतियों की लड़ियों की याद दिलाती है जिससे लहर (आनन्द तरंग, विष चढ़ना ) सी उठने लगती है । मयूर के शब्द से वंशी की. ध्वनि याद आती और 'पी कहाँ', 'पी कहाँ' सुनते ही पति की बाँकी टेढ़ी-मेढ़ी छवि हृदय को बार बार बेधती है। विद्युत् की ॥ 5