पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२१

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7 भाषा-सौन्दर्य] ३१५ चमक श्री कृष्ण के पीतांबर के छोर को स्मृति में लाकर हृदय को फड़फड़ा देती है। कितना भाव सरल शब्दों से युक्त सुगठित भाषा में कहा गया है। प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थ- व्यक्ति, उदारता, कांति आदि सभी गुण इसमें मौजूद हैं । श्लेष, स्मरण, क्रम, स्वभावोक्ति, यमक, अनुप्रासादि अलङ्कारों का चमत्कार श्राप से आप आ गया है, कवि को उन्हें लाने के लिए कुछ भी प्रयास नहीं करना पड़ा है। भाषा की मधुर धारा श्रोता तथा पाठक दोनों ही को मुग्ध कर देती है। दो चार उदा- हरण और दे दिए जाते हैं। सभी भाषा की दृष्टि से, जैसी ऊपर विवेचना की जा चुकी है, एक से एक बढ़ कर हैं। • हूलति हिए में प्रानप्यारे के बिरह-सूल, फूलति उमंग भरी मूलति हिंडोरे पै। गावति रिमावति हसावति सबन 'हरि चन्द्र' चाव चौगुनो बढ़ाइ घन घोरे पै।। पारिवारि डारों प्रान हँ सनि, मुरनि, बतरान, मुँह पान, कजरारे हग डोरे पै। ऊनरी घटा मैं देखि दूनरी लगी है श्राहा, कैसी श्राजु चूनरी फबी है मुख गोरे पै।। ४. छरी सी छकी मीजड़ भई सी जकी सी घर हारी सी बिकी सी सो तो सबही घरी रहै। बोले ते न बोलै हग खोले ना हिंडोले बैठि, एक टक देखै सो खिलौना सी धरी रहै । 'हरीचंद' औरौ घबरात समुझाएँ हाय, हिचकि-हिचकि रोवै जीवति मरी रहै। बाद पाएँ सखिन रोवावै दुख कहि-कहि, तौ लौ सुख पावै जौ लौ मुरछि परी रहै ।।