पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२३

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लोकोक्ति] लोकोक्ति भारतेन्दु जी कविता में नित्य के बोलचाल की कहावतों का बहुत ही अच्छा प्रयोग करते थे और इससे कविता के भावों की खूब पुष्टि होती थी। जिस प्रकार प्रत्येक जीव के लिये जन्म- मरण निश्चित है उसी प्रकार सुख दुःख भी दोनों प्रत्येक जीव के भाग्य में लिखा रहता है। किसी को सुख अधिक है तो किसी को दुःख । इसका समाधान करने के लिये कितना भी तर्क-वितर्क किया जाय पर यह कमी तथा आधिक्य है और रहेगा। कृष्ण जी के मथुरा-गमन पर गोपिकाएँ जब सुनती हैं कि उन्होंने कुब्जा पर अपना प्रेम प्रदर्शित किया है, तब वे सोचती हैं कि क्या कुब्जा संसारोपरि है और मथुरा क्या मिट्टी पत्थर की भूमि नहीं है जो कृष्ण वहाँ रम गये हैं। अंत में कुछ न समझ पड़ने पर वे कहती हैं कि कुछ नहीं यह सब भाग्याधीन है। कुबजा जग के कहा बाहर है. नन्दलाल ने जा उर हाथ धर्यो । मथुरा कहा भूमि की भूमि नहीं जहँ जाय कै प्यारे निवास कर्यो । 'हरिचन्द' न काहू को दोष कछू मिलिहैं सोइ भाग में जो उतर्यो । सबको जहाँ भोग मिल्यौ तहाँ हाय बियोग हमारे ही बाँटे पर्यो । साथ ही ये गोपिकाएँ समझती भी थीं कि मोहन को निर्मोही जानते हुए भी जो हम लो गों ने उससे प्रेम करने की भूल की है वही हमारे गले आ पड़ी है। यामैं न और को दोष कछू सखि चूक हमारी हमारे गले परी। और हमने उन्हें भला आदमी सुजान समझा था, जानती थी कि वे ऐसे हैं, नहीं तो- जानि सुजान मैं प्रीति करी सहि के जग की बहु भाँति हँसाई । त्यों 'हरिचन्द जू' जो जो कह्यौ सो को चुप है करि कोटि उपाई ॥