पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२४

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[ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सोऊ. नहीं निबही उनसों उन तीरत बार कछू ना लगाई। - साँची भई कहनावति वा अरी ऊँची दुकान की फीकी मिठाई ॥ प्रेम भी विचारा ऐसा दो के बीच में पड़ा है कि कुछ कहने को नहीं । प्रतिक्षण मिलना होता रहे तभी ठीक है, नहीं तो कभी एक पक्ष की विरहाग्नि प्रबल, कभी दूसरे पक्ष की। इसी प्रेम में दग्ध होकर सखी अपने आप को कोस रही है। जानति हो सब मोहन के शुन तो पुनि प्रेम कहा लगि कोनो। त्यों 'हरिचन्द जू' त्यागि सबै चित मोहन के रस रूप में भीनो ।। तोरि दई उन प्रीति उतै अपवाद इतै जग को हम लीनो हाय सखी इन हाथन सों अपने पग आप कुठार मैं दीनो ॥ इस प्रकार अपने को कोसती हुई इस विरहिणी की दशा की दूसरी सखी उसके प्रलाप का भी कथन करते हुए यों वर्णन करती है- घेरि घेरि घन आए छाय रहे चहूँ ओर कौन हेत प्राननाथ सुरति बिसारी है। दामिनी दमक जैसी जुगुनू चमक तैसी नभ मैं बिशाल बगपंगति सँवारी है ऐसी समय 'हरिचंद धीरना धरत नेकु बिरह बिथातें होत व्याकुल पिबारी है। प्रीतम पिबारे नन्दलाल बिनु हाय यह सावन कीरात किधी द्रौपदी की सारी है। इस प्रकार विकल नायिका को उसकी सखियाँ समझाने लगती हैं तो वह उन्हें कैसा उपालंभ देती है- पहिले बहु भाँति भरोसो दियो अब ही हम लाइ मिलावती हैं । 'हरिचन्द' भरोसे रही उनके सखियाँ जे हमारी कहावती हैं। अब वेई जुदा है रही हम सों उलटो मिलि के समुझावती हैं । पहिले तो लगाइ कै आग अरी जल को अब आपुहि धावती हैं ।। खैर किसी प्रकार सखियाँ जब नायक को समुझा बुझाकर