पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२५

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अनुवाद] सीधा करती हैं तब वही प्रेम इस विरहिणी को मानिनी बना देता है । सखी कहती है- प्रानपियारे तिहारे लिए सखि बैठे हैं देर सौ मालती के तर॥ तू रही बातें बनाय बनाय मिले न बृथा गहि कै कर सो कर । तोहि घरी छिन बीतत है 'हरिचन्द' उतै जुग सो पलहु भर ॥ तेरी तो हाँसी उतै नहिं धीरज नौ घरी भद्रा घरी में जरै घर । अंत में मानिनी भी मान जाती है और प्रीतम से मिलती है। मान द्रवित होकर करुणरस में परिवर्तित हो जाता है। नायिका प्रीतम से जो प्रार्थना करती है उसके एक एक अक्षर में उसका हृदयस्थ प्रेम उच्छलित होता ज्ञात हो रहा है- तुम्हरे तुम्हरे सब कोऊ कहैं तुम्हें सो कहा प्यारे सुनात नहीं। विरुदावली श्रापुनी राखौ मिलौ मोहि सोचिबे की कोऊ बात नहीं ॥ 'हरिचन्द जू' होनी हुती सो भई इन बातन सों कछ हाथ नहीं। अधुनावते सोच बिचारि तबै जलपान के पूछनी जात नहीं ॥ इनके सिवा भी अनेक ऐसी लोकोक्तियों की बराबर सुष्टु योजना इनके पदों में रही है। गद्य में, मुख्यतः नाटकों में, भी ऐसी योजना बहुत है। अनुवाद अनुवाद करना जितना सुगम समझा जाता है वैसा वास्तव में नहीं है। यह जब गद्य के लिये कहा जा सकता है तब पद्य का पद्यानुवाद करना तो अवश्य ही दुरूह है। मौलिक रचना से भी वह अधिक कष्टसाध्य है। अन्य कवि के भाव को उसी प्रकार सरस शैली में व्यक्त कर देना उससे श्रेष्ठतर नहीं तो कम से कम उसके समकक्ष कवि ही के लिए साध्य है। भारतेन्दु जी ने विशेषतः संस्कृत ही से अनुवाद किए हैं, केवल एक दुर्लभबन्धु