पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२८

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र भी जयदेव कथित यह हरि को रूप ध्यान मन भायो । बसै सदा रसिकन के हिय 'हरिचन्द' अनूप सुहायो॥ महाकवि विशाखदत्त-कृत मुद्राराक्षस नाटक का आपका अनु- बाद बहुत ही अच्छा हुआ है। उसके भी दो उदाहरण यहाँ दिए जाते हैं। मंगलाचरण के प्रथम श्लोक में महादेव जी के गंगा जी के छिपाने के प्रयास का वर्णन है- १- धन्या केयं स्थिता ते शिरसि १ शशिकला; किन्तु नामैतदस्या ? नामैवास्यास्तदेतत्परिचितमपि ते विस्मृतं कस्य हेतो? नारी पृच्छामि नेन्द्; कथयतु विजया न प्रमाणं यदीन्दु- देव्या निहोतुमिच्छोरिति सुरसरित शाठ्यमन्याद्विभोवः ।। ( अनुवाद, सवैया) 'कौन है सीस पै?' 'चन्द्रकला', 'कहा याको है नाम यही त्रिपुरारी' ? "हाँ यही नाम है भूल गई किमि जानत हू तुम प्रानपियारी' 'नारिहि पूछत चन्द्रहि नाहिं', 'कहै विजया जदि चन्द्र लबारी' । यो गिरिजै छलि गंग छिपावत ईस हरौ सब पीर तुम्हारी ॥ १-प्रत्यग्रोन्मेष जिह्मा क्षणमनमिमुखी रत्नदीप प्रमाणाम् । आत्मन्यापारगुर्वी जनितजललवा जम्भितैः साङ्गभङ्गैः। नागाङ्क मोक्तु मिच्छोः शयनमुकुरु फणा चक्रवालोपधानं । निद्राग्छेदाभिताम्रा चिरमवतु हरेदृष्टि राक करा वः ॥ इसका अनुबाद पद में वैवालिक के गाने योग्य किवा गया है- हरौ हरि-नन तुम्हारी बाधा। सरद-अन्त लखि सेस-अंक ते जगे जगत-सुभ-साधा ॥ कछु कछु खुले, मुँदे कछु सोभित आलस भरि अनियारे । अरुन कमल से मद के मावे थिर भे, जदपि ढरारे ।।