पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३३०

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३२४ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र धीरज नसावत बढ़ावत विरह काम , कहर मचावत बसंत अब प्रावैगो ।। २-गोरो सो रंग उमंग भरयो चित, अंग अनंग को मंत्र जगाए । काजर रेख खुभी हग मैं दोउ , मोहन काम कमान चढ़ाए ॥ श्रावनि बोलनि डोलनि ताकी , चढ़ी चित में अति चोप बढाए । सुन्दर रूप सो नैनन में बस्यो, भूलत नाहिने क्यों हूँ भुलाए । पूर्वोक्त उद्धरणों के पढ़ने से उनमें अनुवाद की गंध तक नहीं आती प्रत्युत् मूल सा आनन्द मिलता है । इस प्रकार सहज ही मूल के समान अनुवाद कर डालने का मुख्य कारण भारतेन्दु जी की जन्मसिद्ध काव्य-प्रतिभा थी। अनुवाद करने में वे इतने कुशल थे और उसे मूल में इस प्रकार मिला देते थे कि पाठकों को भ्रम हो जाता है कि दोनों में कौन बढ़कर है। अंग्रेजी के अनुवाद 'दुर्लभ बंधु' का उल्लेख हो चुका है और उसकी रचना में अन्य लोगों की सहायता भी ली गई थी, इससे उसपर विशेष यहाँ नहीं लिखा जाता। इसके पात्रों के नामों का अनुवाद ही, जो वास्तव में इन्हीं का किया हुआ है, अति सुन्दर हुआ है। पोशिया का पुरश्री, जेसिका का यशोदा, ऐन्टॉनिया का अनन्त श्रादि नामकरण किए. गए हैं, यह सब भारतेन्दु जी की सजीवता ही का फल है। नवीन रस सहदय पुरुषों के हृदय में रति-शोक आदि अनेक भाव स्थायी रूप से पाए जाते हैं, जिनका वे बराबर अनुभव किया करते हैं। कभी वे किसी से प्रेम करते हैं, किसी पर क्रोध प्रकाश करते हैं, किसी अदभुन वस्तु को देख कर चकित होते हैं या किसी के लिए शोक करने में प्रकार के बहुत, से भाव क्रमशः उनके हृदय में