पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३३१

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नवीन रस] ३२५ - वासना रूप से स्थित हो जाते हैं जो अवलंबन पाते ही प्रस्फुटित हो सकते हैं । ऐसे भाव, जो एक प्रकार की चित्तवृत्ति हो जाते हैं, स्थायी कहलाने लगते हैं। ये 'विभावेनानुभावेन व्यक्तः संचारिण: तथा । रसतामेति' अर्थात आलंबनउद्दीपन विभाव द्वारा प्रस्फुटित और उद्दीप्त होने पर कटाक्षादि अनुभावों तथा ग्लानि आदि संचारी भावों द्वारा अभिव्यक्त होकर रसत्व को प्राप्त होते हैं। रति शोक, क्रोध, उत्साह, विस्मय, हास, भय, जुगुप्साऔर निर्वेद नव स्थायी भाव है, जिनके अभिव्यक्त होने पर शृंगार, करुणा, रौद्र, वीर, अद्भुत, हास्य, भयानक, वीभत्स तथा शांत रसों के परिपाक हो जाते हैं। कुछ आचार्यों का मत है कि इनमें से एक शांत रस नाटक में नहीं आ सकता। 'शांतस्य शमसाध्यत्वानटे च तदसम्भवात्' अर्थात् नट में शांति असंभव है। पर यह कथन ठीक नहीं है। जो नट अभी क्रोध और तुरन्त ही बाद को (परदा बदलने ही के फेर में ) हास्य दिखला सकता है, वह शांत क्यों नहीं हो सकता। यदि वह समाधिस्थ तपस्वी का स्वाँग धारण किए हुए है तो वह क्या बन्दर की चंचलता दिखलावे ही गा। वह अभिनेता है, उसे तो सभी प्रकार के भावों का, बिना स्वयं उसे अनुभव किए, इस प्रकार स्वाँग दिखलाना है कि दर्शकगण पर उनका ठीक और सत्य प्रभाव पड़ जाय । यदि वह स्वयं क्रोध, प्रेम आदि के फन्दे में पड़ जाएगा, तो अभिनय का उसे ध्यान ही कहाँ रह जायगा। पंडितराज जगन्नाथ ने रसगंगाधर में 'अथ कथमेत एव रसाः' कहकर रसों के केवल नौ ही होने अर्थात् उससे अधिक न होने की चर्चा चलाई है। भक्ति को एक स्थायी भाव मानकर तक किया है । पूर्वाचार्यों का मत रतिर्देवादि विषया व्यभिचारी' कह कर तथा भरतादि मुनि वचनानामेवात्र रसभावत्वादि व्यव-